Tuesday, August 10, 2021

आपको नींद से जगाकर होश में ला देने वाली कविता |बावन साल पुरानी आँखें |राही मासूम रज़ा

राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२)[1] का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

राही मासूम रज़ा
राष्ट्रीयता
भारतीय
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने आधा गांव, दिल एक सादा कागज, ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी उपन्यास व १९६५ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी ये सभी कृतियाँ हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य १८५७ जो बाद में हिन्दी में क्रांति कथा नाम से प्रकाशित हुआ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे। आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आर्ज़ू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन ७५ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।[2] पिछले कुछ वर्षों प्रसिद्धि में रहीं हिन्दी पॉप गायिका पार्वती खान का विवाह इनके पुत्र नदीम खान, हिन्दी फिल्म निर्देशक एवं सिनेमैटोग्राफर से हुआ था।

उन्होंने एक टीवी धारावाहिक महाभारत की पटकथा और संवाद लिखे।[3] टीवी धारावाहिक महाकाव्य महाभारत पर आधारित था। धारावाहिक भारत के सबसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिकों में से एक बन गया, जिसमें लगभग 86% की चोटी की टेलीविजन रेटिंग थी।



बावन साल पुरानी आँखें
राही मासूम रज़ा
अनुवाद : प्रदीप साहिल

बावन साल पुरानी आँखें 

कब तक जागें 

देखे-अनदेखे सपनों से भागें 

दश्ते-तमन्ना 

लम्हा-लम्हा 

हर लम्हा इक रेत का ज़र्रा 

हर ज़र्रा इक पूरा सहरा 

गिनते-गिनते हार गए हम 

लगता है बेकार गए हम 

देख-अनदेखे सपनों से कब तक भागें 

कब तक जागें 

बावन साल पुरानी आँखें 

सारी परियाँ 

सब्ज़ 

सुनहरी 

काली-पीली सारी परियाँ 

बूढ़ी पनकुट्टी से शायद अब भी बाहर आती होंगी 

उस आँगन में 

जिसकी रात चखी नहीं हमने जाने कब से 

लेकिन नोके-ज़ुबाँ पे शायद 

जिसका मज़ा मौजूद हो अब भी : 

हार-सिंगार से फूलों वाली एक लतर थी 

जो इक फुलसुंघी का घर थी 

घर से अक्सर ख़त आते है 

लेकिन उस फुलसुंघी के बारे में कोई कुछ नहीं लिखता 

जिनसे साथ की सोई-जागी सारी रातें 

साथ के खेले सारे दिन महका करते थे 

बेद की वो लंबी-सी कुर्सी 

जिस पर अब्बा 

सुबह की चाय से कुछ ही पहले 

बैठ के 

नीचे वाली सड़क को 

रोज़ सुनाया करते थे अपने बूढ़े क़ुर्आन की पुर-असरार आवाज़ें 

कोई हमें ये क्यों नहीं लिखता 

उस कुर्सी पर कैसी गुज़री 

वो कुर्सी अब कैसी होगी 

क्या वो अब भी बालकनी में रखी होगी 

सामने वाली सड़क पर आख़िर शोर है कैसा 

गांधी जी की टोली होगी 

या फिर शायद होली होगी 

या शायद उस रामदई सब्ज़ी वाली ने 

कुछ से ज़्यादा कम फिर सब्ज़ी तोली होगी 

यादों की गलियों में गलियाँ 

सूखे फूल 

कुँवारी कलियाँ 

साथ के खेले सारे दशहरे 

वो हमजोली दुलदुल, वो ताबूत, वो मातम 

सारे नंगे पाँव मुहर्रम 

जिनके बिन ख़ाली-ख़ाली लगता है मुझको अब हर मौसम 

जाने कितनी बार जगी है मेरे साथ यही दीवाली 

मुझसे आज जो नावाक़िफ़ है 

जिसके लिए मैं बेगाना हूँ 

लाखों-लाख, करोड़ों रौशन हाथों वाली सारी रातें 

जगमग करती 

पायल जैसी बजती-खनकती सारी रातें 

हर दीवार पे, 

हर चौखट पर 

हर आँगन में लवें लहराएँ 

रात के काले पानी में बहती नौकाएँ 

नींद का दरिया सूख चला है ये नौकाएँ डूब न जाएँ 

जब तक नींद न आए तब तक जागें 

देख-अनदेखे सपनों से भागें 

बावन साल पुरानी आँखें... 

घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर 

आज भी शायद लटकी होंगी 

बिछड़ी हुई सारी दोपहरें 

नीम तले इक जमघट होगा 

हरे-भरे क़हक़हों का जंगल 

उम्मीदों की सारी नहरें 

बिछड़ी हुई सारी दोपहरें 

अम्मा की अनपढ़ मासूम मुहब्बत 

डाँटों का ख़ुश-रंग दुपट्टा ओढ़े... 

घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर लटका होगा 

बुढ़िया के काते का जंगल 

मंगलाराय के सारे दंगल 

बचपन के वो रंग-बिरंगे सारे सावन 

खुलते-बरसते सारे बादल 

शायद उस पीपल ही में हो ‘राही’ तेरे सलीब की लकड़ी 

चलें 

उसी पीपल से पूछें 

हमने आख़िर क्या खोया है 

हमने आख़िर क्या खोया है 

इस सीमेंट के जंगल में हम खो गए शायद 

राहों की ये भूल-भूलैयाँ 

कोई राह कहीं नहीं जाती 

चलते-चलते 

जूते के तल्ले की तरह इस शहर में चेहरे भी घिसते हैं 

हर चेहरे के नीचे से इक नाश्ता-दान निकल आता है 

बासी ख़्वाबों की रोटी खा-खा कर कोई 

आख़िर कब तक जी सकता है 

ताज़ा ख़्वाब कहाँ से लाएँ 

आख़िर किस बाज़ार में जाएँ? 

कितनी दूर यहाँ से होगा 

बोलो, 

“आधा गाँव” हमारा 

चलें वहीं और 

आठ मुहर्रम की मजलिस का हलवा खाकर 

हम फिर ताज़ा-दम हो जाएँ 

और वहाँ से 

कोई सफ़र आग़ाज़ करें हम 

वहाँ से नाता टूट गया तो 

हम भी शायद 

नाश्ता-दानों के जंगल में 

चलते-चलते थक जाएँगे 

पेट के अंधे कुएँ में कूद के शायद एक दिन मर जाएँगे 

बावन साल पुरानी आँखो! 

हमको बचा लो 

बावन साल पुरानी आँखो! 

सो जाओ 

और सपने देखो, 

नए-पुराने सपने देखो... 


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