Wednesday, September 8, 2021

क्या कर्ण भीष्म आज्ञा पालन करेगा या फिर युद्ध ? जानने के लिए सुनिए|कर्ण-भीष्म संवाद|रश्मिरथी|षष्ठ सर्ग|Part-18|PoemNagari

प्यारे मित्रों आप सभी रश्मिरथी षष्ठ सर्ग सुन रहे हैं, पिछले अंक में आपने सुना भीष्मा बड़े प्रेम से शत्रु को अपना जीवन दान देते हैं इस अंक में हम सभी भीष्म-कर्ण संवाद सुनेंगे -


गिरि का उदग्र गौरवाधार

गिर जाय श्रृंग ज्यों महाकार,

अथवा सूना कर आसमान

ज्यों गिरे टूट रवि भासमान,

कौरव-दल का कर तेज हरण

त्यों गिरे भीष्म आलोकवरण।


कुरूकुल का दीपित ताज गिरा,

थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा,

भूलूठित पितामह को विलोक,

छा गया समर में महाशोक।

कुरूपति ही धैर्य न खोता था,

अर्जुन का मन भी रोता था।


रो-धो कर तेज नया चमका,

दूसरा सूर्य सिर पर चमका,

कौरवी तेज दुर्जेय उठा,

रण करने को राधेय उठा,

सबके रक्षक गुरू आर्य हुए,

सेना-नायक आचार्य हुए।


राधेय, किन्तु जिनके कारण,

था अब तक किये मौन धारण,

उनका शुभ आशिष पाने को,

अपना सद्धर्म निभाने को,

वह शर-शय्या की ओर चला,

पग-पग हो विनय-विभोर चला।


छू भीष्मदेव के चरण युगल,

बोला वाणी राधेय सरल,

"हे तात ! आपका प्रोत्साहन,

पा सका नहीं जो लान्छित जन,

यह वही सामने आया है,

उपहार अश्रु का लाया है।


"आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ,

रण में चलकर कुछ काम करूँ,

देखूँ, है कौन प्रलय उतरा,

जिससे डगमग हो रही धरा।

कुरूपति को विजय दिलाऊँ मैं,

या स्वयं विरगति पाऊँ मैं।


"अनुचर के दोष क्षमा करिये,

मस्तक पर वरद पाणि धरिये,

आखिरी मिलन की वेला है,

मन लगता बड़ा अकेला है।

मद-मोह त्यागने आया हूँ,

पद-धूलि माँगने आया हूँ।"

भीष्म ने खोल निज सजल नयन,

देखे कर्ण के आर्द्र लोचन

बढ़ खींच पास में ला करके,

छाती से उसे लगा करके,

बोले-"क्या तत्व विशेष बचा ?

बेटा, आँसू ही शेष बचा।


"मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण,

पर हाय, हठी यह दुर्योधन,

अंकुश विवेक का सह न सका,

मेरे कहने में रह न सका,

क्रोधान्ध, भ्रान्त, मद में विभोर,

ले ही आया संग्राम घोर।


"अब कहो, आज क्या होता है ?

किसका समाज यह रोता है ?

किसका गौरव, किसका सिंगार,

जल रहा पंक्ति के आर-पार ?

किसका वन-बाग़ उजड़ता है?

यह कौन मारता-मरता है ?


"फूटता द्रोह-दव का पावक,

हो जाता सकल समाज नरक,

सबका वैभव, सबका सुहाग,

जाती डकार यह कुटिल आग।

जब बन्धु विरोधी होते हैं,

सारे कुलवासी रोते हैं।


"इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,

मन में सोचो, यह महासमर,

किस ओर तुम्हें ले जायेगा ?

फल अलभ कौन दे पायेगा ?

मानवता ही मिट जायेगी,

फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?


"ओ मेरे प्रतिद्वन्दी मानी !

निश्छल, पवित्र, गुणमय, ज्ञानी !

मेरे मुख से सुन परूष वचन,

तुम वृथा मलिन करते थे मन।

मैं नहीं निरा अवशंसी था,

मन-ही-मन बड़ा प्रशंसी था।


"सो भी इसलिए कि दुर्योधन,

पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,

मुझको न मानकर चलता था,

पग-पग पर रूठ मचलता था।

अन्यथा पुत्र ! तुमसे बढ़कर

मैं किसे मानता वीर प्रवर ?


"पार्थोपम रथी, धनुर्धारी,

केशव-समान रणभट भारी,

धर्मज्ञ, धीर, पावन-चरित्र, 

दीनों-दलितों के विहित मित्र,

अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे,

तुम मिले कौरवों को वैसे।


"पर हाय, वीरता का सम्बल,

रह जायेगा धनु ही केवल ?

या शान्ति हेतु शीतल, शुचि श्रम,

भी कभी करेंगे वीर परम ?

ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?

या लड़कर ही मर जायेंगे ?


"चल सके सुयोधन पर यदि वश,

बेटा ! लो जग में नया सुयश,

लड़ने से बढ़ यह काम करो,

आज ही बन्द संग्राम करो।

यदि इसे रोक तुम पाओगे,

जग के त्राता कहलाओगे।


"जा कहो वीर दुर्योधन से,

कर दूर द्वेष-विष को मन से,

वह मिले पाण्डवों से जाकर,

मरने दे मुझे शान्ति पाकर।

मेरा अन्तिम बलिदान रहे,

सुख से सारी सन्तान रहे।"


"हे पुरूष सिंह !" कर्ण ने कहा,

"अब और पन्थ क्या शेष रहा ?

सकंटापन्न जीवन समान,

है बीच सिन्धु में महायान;

इस पार शान्ति, उस पार विजय

अब क्या हो भला नया निश्चय ?


"जय मिले बिना विश्राम नहीं,

इस समय सन्धि का नाम नहीं,

आशिष दीजिये, विजय कर रण,

फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;

जलयान सिन्धु से तार सकूँ;

सबको मैं पार उतार सकूँ।


"कल तक था पथ शान्ति का सुगम,

पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,

अब उसे देख ललचाना क्या ?

पीछे को पाँव हठाना क्या ?

जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,

अरि-दल को गर्व दलेंगे हम।


"हे महाभाग, कुछ दिन जीकर,

देखिये और यह महासमर,

मुझको भी प्रलय मचाना है,

कुछ खेल नया दिखलाना है;

इस क्षण तो मुख मोडि़ये नहीं;

मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं।


करने दीजिये स्वव्रत पालन,

अपने महान् प्रतिभट से रण,

अर्जुन का शीश उड़ाना है,

कुरूपति का हृदय जुड़ाना है।

करने को पिता अमर मुझको,

है बुला रहा संगर मुझको।"


गांगेय निराशा में भर कर,

बोले-"तब हे नरवीर प्रवर !

जो भला लगे, वह काम करो,

जाओ, रण में लड़ नाम करो।

भगवान् शमित विष तूर्ण करें;

अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।"


भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।


पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी, 

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।


सेना समग्र हुकांर उठी,

‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।


सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।


झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।


प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।


सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।


"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।


"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण 

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।


बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।

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