Title Of Poem - That Could Not Be Life !
खोखले शब्द
जो जीवन ना बन सके
बस छाया या
उस जैसा कुछ बनके
खुद को छलते रहे...
बुनता रहा सपनें
सो कर
खोता रहा
हकीकत
या कुछ ऐसा देखा
जिसे कबुल
ना कर सका
बनता देखा औरों को
दुनिया में मशहूर
रोका रखा खुद को
न जाने किस तलाश में था
गुम ?
कितनी स्पष्टता
होनी चाहिए होती है
दौड़ने के लिए ?
कितने देर पहले
दिख जानी चाहिए होती है
मंजिल ?
हार और जीत से
कितना ही फर्क पड़ना चाहिए ?
इन सवालों का
क्या ही जवाब होगा ?
बने-बनाए मापदंडों की कसौटी
कितनी मजबूत होती हैं ?
या कि समय ही
इन कसौटी की परख करती हैं ?
कभी तोड़ती है तो कभी
एक नया पैमाना गढ़ जाती है ...
जीवन में हमेशा
एक उलझन रही है ...
एक व्याकुलता रही हैं ...
एक अबुझी प्यास
और प्यार की
कमी रही है...
एक अशांति
एक भ्रम-सा कुछ !
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