आखिर इतनी बेचैनी क्यो होती है कभी-कभी .... सारी बाते भुल कर हम वही , जो पहले नही होना चाहिऐ था उसी को दुहराने को इतनी आतुर क्यो हो जाते है ,शायद यह वही समय होता है जब हमे थोडे पल रुक कर अपने आप को बहुत सावधानी से जानने की जरुरत होती है और उन अनजान बेचैनीयो को समझने की भी ....
इस बावरे और भोले भाले मन से जानने की कोशिश करते है कि अरे भाई आखिर ये तू क्या दुहराने को तत्पर है ,अगर यही सही है तो ठीक है बेहिचक आगे बढो ... मगर यदि यह ठीक नही ...तो फिर क्यो ! बस इतनी सी बात मन समझ जाऐ तो हम एक नऐ सम्भावा की खोज कर सकेगे ,नही तो बहुत बडी बोझ का सामना करना पड सकता है ... ये तो हुई समझदारी की बात ....लेकिन जब हम स्वभावतः कुछ ऐसा कर देते है जो औरो को ठेस पहुचाती है तो उससे कैसे बाहर निकले ,मन खुद को कोसने लगता है जब कोई समाधान नही दिखता है ,तो एक बैचैनी मन को मलिन कर देती है ...परन्तु दिल जानता है कि मैने जान-बुझकर ऐसा नही किया. ...लेकिन जो किया वह गलत नही था इस बात को कैसे समझाऐ , कैसे उनके नजरो को अपने नजरिया का एहसास दिलाऐ ,तब बहुत कठीन हो जाता है खुद को रख पाना किसी के सामने ...हम एक दुसरे को समझ ही नही पाते है और ये दुरियाॅ बढती जाती है ....यही पर उस भगवान के करिशमा का साक्षात्कार भी होता है -
"बिना किसी सवाल- जबाब ,जब हमे अपनी-अपनी गलतीयो का स्वतः आभास हो जाता है और हम फिर से एक हो जाते है "
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