Monday, August 30, 2021

यह बनारस है || हिंदी कविता || अष्टभुजा शुक्ल ||Recited By Kishor || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अष्टभुजा शुक्ल द्वारा लिखित है ।



सभ्यता का जल यहीं से जाता है 

सभ्यता की राख यहीं आती है 

लेकिन यहाँ से सभ्यता की कोई हवा नहीं बहती 

न ही यहाँ सभ्यता की कोई हवा आती है 

यह बनारस है 

चाहे सारनाथ की ओर से आओ या लहरतारा की ओर से 

वरुणा की ओर से आओ या गंगा की ओर से 

इलाहाबाद की ओर से आओ या मुग़लसराय की ओर से 

डमरू वाले की सौगंध 

यह बनारस यहीं और इसी तरह मिलेगा 

ठगों से ठगड़ी में 

संतों से सधुक्कड़ी में 

लोहे से पानी में 

अँग्रेज़ों से अँग्रेज़ी में 

पंडितों से संस्कृत में 

बौद्धों से पालि में 

पंडों से पंडई और गुंडों से गुंडई में 

और निवासियों से भोजपुरी में 

बतियाता हुआ यह बहुभाषाभाषी बनारस है 

गुरु से संबोधन करके 

किसी गाली पर ले जाकर पटकने वाले 

बनारस में सब सबके गुरु हैं 

रिक्शेवाला गुरु है 

पानवाला गुरु है 

पंडे, मल्लाह, मुल्ला, माली और डोम गुरु हैं 

नाई गुरु है, क़साई गुरु है, भाई गुरु है 

कॉमरेड गुरु हैं 

शिष्य गुरु हैं और गुरु तो गुरु हैं ही 

लेकिन गुरु के बारे में सबके अनुभव अलग-अलग हैं 

किसी के लेखे गंगा ही गुरु हैं 

किसी के लेखे ज्ञान ही गुरु है 

किसी के लेखे स्त्री गुरु है 

किसी के लिए सीढ़ी ही गुरु है 

जबकि किसी के लिए ठेस ही गुरु है 

बनारस में 

बनारसी बाघ हैं 

बनारसी माघ हैं 

बनारसी घाघ हैं 

बनारसी जगन्नाथ हैं 

शैव हैं, वैष्णव हैं, सिद्ध हैं, बौद्ध कबीरपंथी, नाथ हैं 

जगह-जगह लगती हैं यहाँ लोक-अदालतें 

कहने को तो कचहरी भी है बनारस में 

लेकिन यहाँ सबकी गवाह गंगा 

और न्यायाधीश विश्वनाथ हैं 

धन से धर्म नहीं होता बनारस में, 

धर्म से धन होता है 

जब बनारसी देवी रोती है 

तब बनारसी दास सोता है 

किसी को जोगी, किसी को जती 

किसी को मल्लाह, किसी को पंडा 

किसी को कवि, किसी को भाँड़ 

किसी को भँगेड़ी-गँजेड़ी, किसी को साँड़ 

बना देता है बनारस 

शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा... सिद्धिदात्री 

आदि नवदुर्गा, भैरव, संकटमोचन आदि 

बज्रहृदय पत्थर के देवी-देवता खड़े हैं 

ताकते हैं टुकुर-टुकुर 

गंगा भी खड़ी हैं यहाँ 

पानी की प्रतिमा बनी है बनारस में 

बनारस में 

फूल—बिकते हैं 

मालाएँ—बिकती हैं 

चंदन—बिकता है 

प्रसाद—बिकता है 

देह—बिकती है 

साहित्य—बिकता है 

सुख नहीं बिकता बनारस में 

फिर भी सुख प्राप्त होता है 

रात का कालिख धोकर सूर्य 

प्रतिदिन बनारस के मुँह में चंदन लगा देता है 

इस तरह बनारस 

अपना अंडा अपने माथे पर सेता है 

बनारस गलियों में जीता है 

और घाटों पर मुक्ति लेता है 

इस तरह विश्व को 

जीवन की सीख देता है 

बनारस में 

मल्ल हैं, अखाड़े हैं, मठ हैं, आश्रम हैं 

व्यायाम, प्राणायाम हैं 

यहाँ सबका बदन गीला है 

लेकिन जाने क्यों 

हर आदमी थोड़ा-थोड़ा ढीला है 

किसी बनारसी को परिचय-पत्र की ज़रूरत नहीं होती 

लगता है समूचा बनारस 

गंगा की केवल एक बूँद से बना है 

मूल है गंगा, बनारस तना है 

जो भी बनारस जाता है 

कोई सिर के बाल, कोई जेब, कोई मन, कोई तन 

अर्थात् कुछ न कुछ खोकर आता है 

और जब कोई यहाँ से जाता है 

हरी झंडी की तरह 

बनारस अपने दोनों हाथ हिलाता है। 

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