Friday, August 20, 2021

vijayee sadrsh jiyo re|Ramdhari Singh 'Dinkar'|Motivationalvideo|Best Poetry Ever|Rashmirathi|PoemNagari

प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा लिखित है ।
  

विजयी के सदृश जियो रे 


वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो


चट्टानों की छाती से दूध निकालो


है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो


पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे


योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है


चिनगी बन फूलों का पराग जलता है


सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है


ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है


अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे


गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है


भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है


है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है


वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है


तलवार प्रेम से और तेज होती है!

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये


मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये


दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है


मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे


जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है


बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे


जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है


कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है


नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है


वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे


धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है


सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है


विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है


जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा


पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!




 

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