Friday, September 17, 2021

किस भय से कृष्ण अर्जुन को कर्ण से दूर हटाएं हैं ?जानिए |रश्मिरथी षष्ठ सर्ग| दिनकर|Part-19|PoemNagari

प्यारे मित्रों
हम सभी रश्मिरथी षष्ठ सर्ग सुन रहे हैं, पिछले अंक में आपने सुना भीष्म करण को समझाते हैं की इस संग्राम को रोक ले दुर्योधन को समझाएं और मुझे शांति से मरने दे  ,पर कर्ण उनकी बात नहीं मानता और उनसे आशीर्वाद ले महासंग्राम में प्रलय मचाना शुरू कर देता है, उसकी विनाशकारी लीला देख कृष्ण अर्जुन को सावधान करते हैं और कहते हैं क्या तुम इससे जीत भी पाओगे अब आगे की कहानी सुनिए -

रश्मिरथी षष्ठ सर्ग Part -19 

‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?


‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"


केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।


एक ही वृम्त के दो कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।


अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,

दोनों दिशि जयजयकार हुई।

दोनों पक्षों के वीरों पर,

मानो, भैरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र,

रूण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की 

धारा पशुओं के पग धोकर।


लेकिन, था कौन, हृदय जिसका,

कुछ भी यह देख दहलता था ?

थे कौन, नरों की लाशों पर,

जो नहीं पाँव धर चलता था ?

तन्वी करूणा की झलक झीन

किसको दिखलायी पड़ती थी ?

किसको कटकर मरनेवालों की

चीख सुनायी पड़ती थी ?


केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल वज्रायुध का प्रहार,

केवल विनाशकारी नर्तन

केवल गर्जन, केवल पुकार।

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,

या उसके कौन विरूद्ध चला ?


था किया भीष्म पर पाण्डव ने,

जैसे छल-छद्मों से प्रहार,

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल,

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।


अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका 

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा ही दारूण कठोर,

देखता नहीं ज्यायान्-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।


सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,

दहक उठा शोकात्र्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,

तब महा लोम-हर्षक निश्चय,

‘कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँ मैं,

सौगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊँ मैं।’


तब कहते हैं अर्जुन के हित,

हो गया प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

माया की सहसा शाम हुई,

असमय दिनेश हो गये अस्त।

ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।


हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

औ‘ भूरिश्रवा अनशन करके,

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

सात्यकि ने मस्तक काट लिया,

जब था वह निश्चल, योग-निरत।


है वृथा धर्म का किसी समय,

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करूणा से कढ़ता धर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा का रण।

जीवन के परम ध्येय-सुख-को

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है ?


है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

जीवन भर चलने में है।

फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति

दीपक समान जलने में है।

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;

मिल जाते है पापी को भी।


इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित, साधन में है,

वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,

समझे मनुष्य संहारों को,

गूँथना चाहते वे, फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।


हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ?

बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्या ?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।


संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भला हो सकता है ?

कैसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है ?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।


मानेगा यह दंष्ट्री कराल 

विषधर भुजंग किसका यन्त्रण ?

पल-पल अति को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रण ?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,

संग्राम-भूमि में लाता है,

सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।


साधना को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

तब जो भी आते विघ्न रूप,

हो धर्म, शील या सदाचार,

एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद-प्रहार।


उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज़ कंकड़ो

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,

छोटी बातों का ध्यान करे ?


चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,

जानता नहीं, क्या करता है,

नीच पथ में है कौन ? पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को अन्तर

मानवता का फट जाता है।


वासना-वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ?

देखने हमें देगा वह क्यों,

करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?

जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,

माँड़ी बन कर छा जाता है

तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े

दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।


फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव

भी नहीं धर्म के साथ रहे ?

जो रंग युद्ध का है, उससे,

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख छुई शीश पर,

जय का तिलक लगाने को,

सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,

विजय-विन्दु तक जाने को।


इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी,

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?

था कौन सत्य-पथ पर डटकर,

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,

अपना नाम अमर करता ?

था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कँपता था ?

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था ?

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुज्जर,

थे विचर रहे पाण्डव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।


संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, 

सारे जीवन से छला हुआ,

राधेय पाण्डवों के ऊपर

दारूण अमर्ष से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज पर कार्तिकेय


संघटित या कि उनचास मरूत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूर्य आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवान,

या महाकाल बन टूटा हो 

भू पर ऊपर से गरूत्मान।


बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरूष की

कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज-दराज वीरों की भी 

छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये

गजराजों के भी पाँव उखड़।


जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पाण्डव-सेना का हृास देख

केशव का वदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्या

सबके विपन्न आज ही प्राण ?

सत्य ही, नहीं क्या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?


"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"

राधेय गरजता था क्षण-क्षण।

"करता क्यों नही प्रकट होकर, 

अपने कराल प्रतिभट से रण ?

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी 

रणकला निबट रह जायेगी ?

या किसी वीर पर भी अपना,

वह चमत्कार दिखलायेगी ?


"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,

मैं उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े,

व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,

दे मुझे जन्म का लाभ और

साहस हो तो खुद भी पाये।"


पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,

शिष्य को बचाये फिरते थे।

चिन्ता थी, एकघ्नी कराल,

यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,

पार्थ का निधन होगा, किस्मत,

पाण्डव-समाज की फूटेगी।

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