Saturday, February 26, 2022

धरती की सबसे उदास औरत || अच्युतानंद मिश्र || हिंदी कविता #PoemNagari

प्रस्तुत कविता अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा लिखित है।

किसी नक़ाबपोश रात में
धरती की सबसे उदास औरत
लौटती है मेरे सपने में
सिरहाने छोड़ जाती है ख़त के टुकड़े
सूखे हुए गुलमोहर के फूल

धरती की सबसे उदास औरत पूछती है
क्यों प्रेम-पत्र हर बार
मिलता है उसे टुकड़ों में
क्यों गुलमोहर के फूल
उस तक आते-आते सूख जाते हैं
क्यों एक ही समय में
दो मौसम हो जाते हैं
एक पतझर उसका
दूसरा वसंत उनका

धरती की सबसे उदास औरत
अपने सपनों का इतिहास दुहराती नहीं
पर लौट जाती हैं हर बार
किसी दूसरे के सपने में !

धरती की सबसे उदास औरत के पास
क्या अब भी कोई सपना है ?
वह सपने के बाहर है
तो सूरज से कितनी दूर ?
कैसे तब्दील कर लेती है वह
सपनों को रोटी में !

धरती की सबसे उदास औरत
जब चलती है ज़मीन पर
पीछे छूट गए पाँव के निशानों को निहारती है
वह हाथ बढ़ाती है
सपनों के बाहर की दुनिया को थामने के लिए
अपनी गोद में खिलाने के लिए

धरती की सबसे उदास औरत
अपने बगल में लेटे पुरूष को
जानवर में तब्दील होते देखती है
पहचानती है उसे थोड़ा घबराती है
फिर जूड़ों में दबा पिन निकालती है
उसकी नोक को अपनी उँगलियों से तौलती है
और मुस्कुराती है
धरती की सबसे उदास औरत
ठहाके मारकर हँसती है

Friday, February 25, 2022

दुनिया का नक़्शा || अच्युतानंद मिश्र ||हिंदी कविता || PoemNagari

 प्रस्तुत कविता अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा लिखित है ।

मैं जानता हूँ
मैं उनके नक़्शे में
कहीं नहीं हूँ
वे चुपके से हर रात
मेरी नींद में आते हैं
फूल पत्थर नदी पहाड़
चुरा ले जाते हैं ।

जब चुभने लगती है
उन्हें मेरी हँसी
वे मुझे बाँध देते हैं
किसी पेड़ से
मैं उदास सोचता रहता हूँ
मेरी उदासी नाप आती है
दुनिया की पूरी लम्बाई
मेरे पैरों के नीचे
घूमती धरती थम जाती है ।

सूरज अपनी आँखें झुका
शर्मिन्दा-सा हो जाता है
नदियाँ खिलखिलाना भूलकर
कोई दुखभरा राग छेड़ देती हैं
पत्थर एक अजीब-सी ख़ामोशी में
जड़ स्तब्ध खड़े रहते हें ।
ऐसे में
पेड़ सुनाते हैं मुझे
एक पुरानी कहानी
हवा के झोंकों से दुलारते हुए
वो मुझे बताते हैं
हर ज़ंजीर उसी लोहे से कटती है
जिससे वह बनती है ।

और जब दुनिया की सबसे गीली मिट्टी
मेरे पैरों के नीचे होती है
मैं सारे दर्द
भूल जाता हूँ
रोटी की मीठी सुगंध
भर जाती है मेरी नस-नस में
मेरा मन करता है
मैं धरती को चूम लूँ

मैं फावड़ा हाथ में
लिए धरती की छाती पर
उकेरता हूँ
गोल-गोल रोटियाँ
और तब
मैं ख़ुद से पूछता हूँ
क्या दुनिया के इस नक़्शे को
इसी दुनिया का नक़्शा मानना चाहिए
जिसमें कहीं कोई लड़की
फ़सल का गीत नहीं गाती
जहाँ कोई बच्चा गिरकर
उठ नहीं पाता
जहाँ किसी फावड़े को उठाए हाथ
फूलों को सहलाते नहीं
जहाँ आदमी की आँख आकाश की ऊँचाई देखकर
आश्चर्य से फटी नहीं रह जाती
जहाँ एक औरत अपनी गीली आँखों को पोछ
फिर से काम में नहीं जुट जाती
अगर ऐसा नहीं है
तो फिर ये कैसी दुनिया है ?

मैं चाहता हूँ
दुनिया के नक्शे को
मेरे रूखड़े सख़्त हाथों की तरह
होना चाहिए
मेरी बेटी के हँसते वक़्त
दिखने वाले छोटे दाँतों की तरह
होना चाहिए
मेरी पत्नी के
खुले केशों की तरह
होना चाहिए

उठता नहीं है मेरा भरोसा
दुनिया के सबसे
मेहनतकश हाथ से
कि एक दिन
चाहे सदियों बाद ही सही
बनेगा दुनिया का एक ऐसा नक़्शा
जहाँ हर उठे हुए हाथ में फावड़ा
और हर झुके हुए हाथ में रोटी होगी ।

Sunday, February 20, 2022

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है || केदारनाथ अग्रवाल ||हिन्दी कविता||Recited By Kishor #PoemNagari

प्रस्तुत कविता केदारनाथ अग्रवाल जी द्वारा लिखित है ।

कविता - जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है ।
कवि - केदारनाथ अग्रवाल


जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा





Tuesday, February 15, 2022

AkashGanga ||Ajay Krishna ||Hindi kavita||Recited By Kishor|| PoemNagari #आकाशगंगा #अजयकृष्ण #Poetry

AkashGanga ||Ajay Krishna ||Hindi kavita||Recited By Kishor|| PoemNagari #आकाशगंगा #अजयकृष्ण #PoemNagari #Poetry 


प्रस्तुत कविता अजय कृष्ण जी द्वारा लिखित है,

शीर्षक - आकाशगंगा 
लेखक - अजय कृष्ण
Recited By - Kishor
 
करोड़ों-करोड़ ग्रहों और तारों
को प्रकाशमान करती हुई आकाशगंगा
गुज़रती है ख़ामोश, पृथ्वी के सन्नाटे
अंधकार के ऊपर से....
एक झोपड़ी के छिद्री में से
कभी-कभार कोई मनचला प्रकाशकण
छिटकता है आँसुओं से भीगे
मध्यनिद्रा में सोए, एक शिशु कपोल पर

खेतों में पड़ी चौड़ी दरारों से
घूरता है काला अँधकार
और झींगुरों की आवाज़ का पहरा
गहराता जाता है रात-रात

दूर कहीं कोने में
बंसवार के पीछे
पता नहीं कब से
चुपचाप, एक प्रयोगशाला में चल रहे अनुसंधान से
एक तीव्र प्रकाश-पुंज
घूमता है इधर-उधर

ढूँढता शायद, ऊँचे पीपलों
की फुनगियों में पलता हुआ कुछ ....
फड़फड़ा उठता है बीच-बीच में
चौंधियाता हुआ सोया पड़ा उल्लू

नहर के उस पार सीवान पर
एक मटमैले प्रकाश में
चल रहा है गोंड का नाच
और झलकता है उसमें
रंगेदता हुआ राम प्रताप को
लाल साड़ी में एक लौंडा
 
आती है कभी-कभी
एक अँधेरे आँगन में
खाली बर्तनों के ठनठनाने की आवाज़
खोज रहा है बूढ़ा मूस
अनाज का एक दाना

एक घर की पिछुत्ती में
सुलगाता है बीड़ी
थका-हारा, मायूस एक चोर
कभी-कभार देखता है आकाशगंगा
की ओर बढ़ते हुए उस प्रकाश पुंज को
आखिर क्यों नहीं पड़ती कभी
भूलकर भी उस पर .....।
जैसे जेलों के टावरों से
पड़ती है रोशनी
भागते हुए क़ैदियों पर
क्यों टकराती है बेतरतीब
सुनसान ऊँचे पीपल और बरगदों से, नंगी पहाडि़यों की चोटियों से

अजीब है वक़्त अभी
रोशनियों के कुचक्र में से
फुँफकार रहा है अंधकार का अजगर

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...