वक्त हमेशा ही साक्षी रहा है, हमारे सुख और दु:ख का , अनिरुद्ध नीरव जी की कविता जो मैं आज आपको सुनाने जा रहा हूं - यह भी कुछ वक्त की ही कहानी कहती हैं - बसंत ऋतु आने से पहले वृक्ष अपने पत्ते गिरा देते हैं , ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि शायद ये पेड़ सुख गए हैं पर ऐसा नहीं होता, बसंत ऋतु के आते ही इसमें फिर से हरियाली छा जाती है ।
कविता का शीर्षक - सिर्फ़
लेखक - अनिरुद्ध नीरव
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।
अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।
अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।
ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।
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