Wednesday, July 28, 2021

एक वृक्ष की हत्या |कुंअर नारायण|हिंदी कविता|Nature Poem|Narrated By Kishor |PoemNagari

अबकी घर लौटा तो देखा वह नहीं था— 

वही बूढ़ा चौकीदार वृक्ष 

जो हमेशा मिलता था घर के दरवाज़े पर तैनात। 

पुराने चमड़े का बना उसका शरीर 

वही सख़्त जान 

झुर्रियोंदार खुरदुरा तना मैला-कुचैला, 

राइफ़िल-सी एक सूखी डाल, 

एक पगड़ी फूल पत्तीदार, 

पाँवों में फटा-पुराना जूता 

चरमराता लेकिन अक्खड़ बल-बूता 

धूप में बारिश में 

गर्मी में सर्दी में 

हमेशा चौकन्ना 

अपनी ख़ाकी वर्दी में 

दूर से ही ललकारता, “कौन?” 

मैं जवाब देता, “दोस्त!” 

और पल भर को बैठ जाता 

उसकी ठंडी छाँव में 

दरअसल, शुरू से ही था हमारे अंदेशों में 

कहीं एक जानी दुश्मन 

कि घर को बचाना है लुटेरों से 

शहर को बचाना है नादिरों से 

देश को बचाना है देश के दुश्मनों से 

बचाना है— 

नदियों को नाला हो जाने से 

हवा को धुआँ हो जाने से 

खाने को ज़हर हो जाने से : 

बचाना है—जंगल को मरुस्थल हो जाने से, 

बचाना है—मनुष्य को जंगल हो जाने से।,

Tuesday, July 27, 2021

Donon Jahan Teri Mohabbat Mein Haar Ke| Faiz Ahmad Faiz |NarratedBy Kishor |PoemNagari

Faiz Ahmad Faiz MBE NI (13 February 1911 – 20 November 1984) was a Pakistani poet, and author in Urdu and Punjabi language. He was one of the most celebrated writers of the Urdu language in Pakistan. Outside literature, he has been described as "a man of wide experience" having been a teacher, an army officer, a journalist, a trade unionist and a broadcaster.

Written By : Faiz Ahmad Faiz
Narrated By : Kishor


दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के 

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के 

वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं 

तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के 

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन 

देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के 

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया 

तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के 

भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फ़ैज़' 

मत पूछ वलवले दिल-ए-ना-कर्दा-कार के 

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है|तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है |जां निसार अख़्तर|Urdu Shayari|Hindi Poetry|By Kishor |PoemNagari

Jan Nisar Akhtar (18 February 1914 – 19 August 1976) was an Indian poet of Urdu ghazals and nazms, and a part of the Progressive Writers' Movement, who was also a lyricist for Bollywood.

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है 

तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है 

जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार 

वो शख़्स मुझ को बहुत बद-नसीब लगता है 

हुदूद-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा 

न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है 

ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस 

कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है 

उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा 

मुझे चराग़-ए-दयार-ए-हबीब लगता है

कर्ण की दानवीरता की महान गाथा |रश्मिरथी|पूरा चतुर्थ सर्ग एक साथ|रामधारी सिंह'दिनकर'|By Kishor|PoemNagari

चतुर्थ सर्ग

प्यारे दोस्तों अब तक हम लोगों ने तृतीय सर्ग को सुना और आज  हम लोग चतुर्थ सर्ग को सुनेंगे जिसमें कर्ण के दानवीरता का साक्षात प्रमाण जानने को मिलेगा तोआइए शुरू करते हैं चतुर्थ सर्ग की कहानी-


प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा ?

तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा ?

हरि के सन्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,

धन्य-धन्य राधेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी ।

पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत जग में चलता है,

भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है ।

हरिआली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी,

मरु की भूमि मगर। रह जाती है प्यासी की प्यासी ।

और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,

सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है |

नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,

दु:ख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।

पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,

वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बसती है;

जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर ।

दो जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गँवाकर ।

नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,

देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है ।

आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतधारी,

हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी ।

'प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,

सबसे बडी जांचच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना ।

अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या ?

करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या ?

सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,

तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी ।

पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,

हँस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है ।

जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,

उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,

और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,

अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।

यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,

रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है।

किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,

गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?

ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है।

मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।

देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,

रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं।

सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,

बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।

आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,

जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है

दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,

रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,

व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,

पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।

जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,

वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,

जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,

वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।

व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,

जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।

दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,

हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।

ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,

अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।

सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,

सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।

हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,

अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।

मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,

उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।

दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,

एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।

बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,

ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,

पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।

रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,

मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था

थी विश्रुत यह बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी हैं,

दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ट दानी हैं ।

जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो,

गो, धरती, गज, वाजि मांग लो, जो जितना भी चाहो ।

'नाहीं' सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से,

धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वह सुख से ।

और दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं !

दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते है ?

करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी,

वरन्, मांगते जो कुछ उसके न्यायसिद्ध अधिकारी ।

और उमड़ती है प्रसन्न दृग में कैसी जलधारा,

मानों, सौंप रहे हों हमको ही वे न्यास हमारा ।

युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं,

कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं ।

पहले ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था ?

इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुंचाया था ?

और सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था,

अर्जित कर बहु विभव नि:सव, दीनों का घर भरता था ।

गो, धरती, गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहां जो पाया,

दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया ।

फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,

कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का।

श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,

अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी।

तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,

किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से।

व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,

कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया।

एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,

कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को।

कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,

अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा।

हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,

हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को।

किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,

कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।

विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,

धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे।

पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,

इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला।

कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,

मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ।

अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,

यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।

'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?

अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?

मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,

याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।

'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,

भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?

आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,

उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर।

'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?

अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।

कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,

तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?

'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,

नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,

हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,

पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का।

'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?

पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?

मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,

मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ।

गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,

लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,

कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,

नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।

'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,

प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।

आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,

कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।

'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,

शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं।

सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,

हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।

'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा।

स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा।

किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,

यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।

'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,

उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है।

अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,

किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा।'

कहा कर्ण ने, 'वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,

जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं।

विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,

बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं।

'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,

किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है।

और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,

जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं।

'आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?

अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?

अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,

सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे।

'मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,

कभी-कभी डोलता समर में किंचित वीर-हृदय भी।

डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,

सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा।'

भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,

'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी।

ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,

महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है।

'मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,

अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से।

क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,

और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ।

'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,

मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा।

किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाएगी,

निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी।

'है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को?

प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को?

सब कोसेंगें मुझे कि मैने पुण्य मही का लूटा,

मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा।

'अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ।'

बोल उठा राधेय, 'आपको मैं अद्भुत पाता हूँ।

सुर हैं, या कि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हैं,

समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं।

'भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे,

जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभिलाषा त्यागेंगे?

गो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दिलवा दूँ,

इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढा दूँ।

'या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,

तो भी वचन तोड़कर हूँगा नहीं विप्र का द्रोही।

चलिए साथ चलूँगा मैं साकल्य आप का ढोते,

सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते।

'वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है,

कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?

विप्रदेव! मॅंगाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,

मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी 'नाहीं'।'

सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डोला,

नयन झुकाए हुए भिक्षु साहस समेट कर बोला,

'धन की लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,

और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ।

'यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें,

देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें।'

'कवच और कुंडल!' विद्युत छू गयी कर्ण के तन को;

पर, कुछ सोच रहस्य, कहा उसने गंभीर कर मन को।

'समझा, तो यह और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,

देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्रगती हैं।

धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,

स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया।

'क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,

छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं।

दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा लेने को,

था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को?

'केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा?

और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा?

फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,

जो भी हो, पर इस सुयोग को, हम क्यों अशुभ विचरें?

'अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा,

शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूँगा।

पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों?

कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?

'यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे,

व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे।

उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवाली,

और इधर मैं लडू लिये यह देह कवच से खाली।

'तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा?

इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा?

एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,

सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को।

'यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,

जहर पीला मृगपति को उस पर पौरुष दिखलाना है।

यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,

जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है।

'देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,

क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छल से?

हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,

सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है।

'और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है,

तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है।

कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,

और काट कर उसे, जगत मे कर्णजयी कहलाए।

'जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,

कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जायेगी मन में।

जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के बल से,

मुझे छोड़ रक्षित जन्मा था कौन कवच-कुंडल में?

'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,

कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।

अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,

हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।

'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,

जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था।

महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला?

किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही धकेला?

'जन्मा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,

परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,

द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया

बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया।

'और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जग में,

आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग मे।

ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था?

हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था?

'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,

नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ।

मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?

खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?

'और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है।

तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?

समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,

सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?

'जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,

उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का।

गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,

किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं।

'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?

मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,

देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,

दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!

'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,

एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है।

स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,

जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है।

'वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,

नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है।

वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में,

बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।

'वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,

दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये।

पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है,

बल से अंधड़ को धकेल वह आगे चल सकता है।

'वह करतब है यह कि युद्ध मे मारो और मरो तुम,

पर कुपंथ में कभी जीत के लिये न पाँव धरो तुम।

वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,

विजय-तिलक के लिए करों मे कालिख पर, न लगाओ।

'देवराज! छल, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ,

मैं केवल आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,

जिन्हें नही अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को,

धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को।

'मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा,

'नीचवंशजन्मा' कहकर जिनको जग धिक्कारेगा।

जो समाज के विषम वह्नि में चारों ओर जलेंगे,

पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे।

'मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,

पूछेगा जग; किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।

जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,

मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।

'मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायेंगे,

निज चरित्र-बल से समाज मे पद-विशिष्ट पायेंगे,

सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी उन्हें देख नत होगा,

धर्म हेतु धन-धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा।

'श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेंगे,

सुख क लिए पाप से जो नर कभी न सन्धि करेंगे,

कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना,

जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना।

'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,

बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,

पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,

देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ।

'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,

कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की।

हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,

अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का।

'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,

विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है।

मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,

पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं।

'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा?

इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?

अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,

अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ।'

'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,

दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,

'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,

कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है।

'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा,

हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा।'

यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,

कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में।

चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे,

दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे।

सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,

'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में।

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,

देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला।

क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से।

ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से।

'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,

तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,

अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,

नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे।

मगर, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,

बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में।

झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं?

करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?

'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,

पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,

देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,

आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर।

'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,

माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं।

दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,

पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है

'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,

दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा।

मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,

वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा।

'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,

कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ।

आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,

दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी।

'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,

शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ।

घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,

हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा।

'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को,

जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को,

वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा,

आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा।

'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा,

काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा।

किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है,

हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मरा जाता है।

'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा,

कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा।

त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है,

उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है।

'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में,

बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में।

दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे,

सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे।

'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है,

मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है।

'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है,

सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है।'

'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी,

तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी।

तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है,

इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है।

'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा,

काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा।

तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ,

उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ

'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो,

अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो।

मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो,

मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो

कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,

देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर?

बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो,

वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो

देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा,

निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा?

और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से?

अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से

धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है,

छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है।

उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा,

पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा।

'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,

मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है।

ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,

इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है।

'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा,

फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा।

अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो,

लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो।

'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये,

देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये।'

दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,

व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को।

आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
अगले भाग की कहानी आती  ही आपको सबसे पहले पता चले, इसके लिए PoemNagari को Subscribe कर bell icon को on कर लें,
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Monday, July 26, 2021

तुम कितनी सुंदर लगती हो, जब तुम हो जाती हो उदास! |धर्मवीर भारती |हिन्दी कविता| By Kishor |PoemNagari

Dharamvir Bharati was a renowned Hindi poet, author, playwright and a social thinker of India. He was the chief editor of the popular Hindi weekly magazine Dharmayug, from 1960 till 1987. Bharati was awarded the Padma Shree for literature in 1972 by the Government of India. His novel Gunaho Ka Devta became a classic.
#तुमउदास #हिंदीकविता #धर्मवीरभारती

तुम कितनी सुंदर लगती हो, जब तुम हो जाती हो उदास! 

ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में, सूने खंडहर के आस-पास 

मदभरी चाँदनी जगती हो! 

मुँह पर ढक लेती हो आँचल, 

ज्यों डूब रहे रवि पर बादल। 

या दिन भर उड़ कर थकी किरन, 

सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन; 

दो भूले-भटके सांध्य विहग 

पुतली में कर लेते निवास। 

तुम कितनी सुंदर लगती हो, जब तुम हो जाती हो उदास! 

खारे आँसू से धुले गाल, 

रूखे हल्के अधखुले बाल, 

बालों में अजब सुनहरापन, 

झरती ज्यों रेशम की किरने संझा की बदरी से छन-छन, 

मिसरी के होंठों पर सूखी, 

किन अरमानों की विकल प्यास! 

तुम कितनी सुंदर लगती हो, जब तुम हो जाती हो उदास! 

भँवरों की पाँते उतर-उतर 

कानों में झुक कर गुन-गुन कर, 

हैं पूछ रही क्या बात सखी? 

उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी-ढुकी बरसात सखी? 

चंपई वक्ष को छू कर क्यों 

उड़ जाती केसर की उसाँस! 

तुम कितनी सुंदर लगती हो, जब तुम हो जाती हो उदास!

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो|Jan Nisar Akhtar|Urdu shayari|Hindi Poetry|NarratedbyKishor |PoemNagari

Jan Nisar Akhtar (18 February 1914 – 19 August 1976) was an Indian poet of Urdu ghazals and nazms, and a part of the Progressive Writers' Movement, who was also a lyricist for Bollywood.

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो,
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो,

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन मे
शरमाएं लचक जाए तो लगता है कि तुम हो,

संदल से महकती हुई पुर-कैंफ़ हवा का,
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो,

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर,
नदी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो,

जब रात गए कोई किरण मेरे बराबर,
चुपचाप से सो जाए तो लगता है कि तुम हो।

Sunday, July 25, 2021

Antim Unchai |अंतिम ऊंचाई |TVF Aspirants |Kunwar Narayan |Apne Samne |PoemNagari|NarratedbyKishor



Written By : Kunwar Narayan
 Book Name : Apne Samne
इस कविता को The Viral Fever (TVF) की वेब-सीरीज़ Aspirants (2021) में बहुत सुंदर ढंग से प्रयोग किया गया है।

कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब 

अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं, 

हमारे चारों ओर नहीं। 

कितना आसान होता चलते चले जाना 

यदि केवल हम चलते होते 

बाक़ी सब रुका होता। 

मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को 

दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में 

अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है। 

शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं 

कि सब कुछ शुरू से शुरू हो, 

लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं। 

हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती 

कि वह सब कैसे समाप्त होता है 

जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था 

हमारे चाहने पर। 

दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए 

जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे— 

जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब 

तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में 

जिन्हें तुमने जीता है— 

जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे 

और काँपोगे नहीं— 

तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं 

सब कुछ जीत लेने में 

और अंत तक हिम्मत न हारने में।

Saturday, July 24, 2021

"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, सिर पर ना चाहिए मुझे ताज' |तृतीय सर्ग|रश्मिरथी|Ep-13|रामधारीसिंह दिनकर|PoemNagari|NarratedbyKishor

पिछले अंक में आपने सुना कि भगवान श्री कृष्ण एक शांतिदूत बन जब पाण्डवों का प्रास्ताव कौरवों के समक्ष रखते हैं तो वे उन्हें ठुकड़ा देते है, और उल्टे श्री कृष्ण को ही बांधने का आदेश दे देते हैं इस पर कुरूद्ध हो श्री कृष्ण अपना विकट रूप धारण करते हैं और सारी सभा सुन्य हो जाती है और फिर अपने कृष्ण की चेतावनी सुनी ,
अब आगे की कहानी सुनिए




भगवान सभा को छोड़ चले, 

करके रण गर्जन घोर चले 

सामने कर्ण सकुचाया सा, 

आ मिला चकित भरमाया सा 

हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, 

ले चढ़े उसे अपने रथ पर। 


रथ चला परस्पर बात चली, 

शम-दम की टेढी घात चली, 

शीतल हो हरि ने कहा, "हाय, 

अब शेष नही कोई उपाय 

हो विवश हमें धनु धरना है, 

क्षत्रिय समूह को मरना है। 


"मैंने कितना कुछ कहा नहीं? 

विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? 

पर, दुर्योधन मतवाला है, 

कुछ नहीं समझने वाला है 

चाहिए उसे बस रण केवल, 

सारी धरती कि मरण केवल 


"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, 

क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? 

वह भी कौरव को भारी है, 

मति गई मूढ़ की मरी है 

दुर्योधन को बोधूं कैसे? 

इस रण को अवरोधूं कैसे? 


"सोचो क्या दृश्य विकट होगा, 

रण में जब काल प्रकट होगा? 

बाहर शोणित की तप्त धार, 

भीतर विधवाओं की पुकार 

निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, 

बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे। 


"चिंता है, मैं क्या और करूं? 

शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? 

सब राह बंद मेरे जाने, 

हाँ एक बात यदि तू माने, 

तो शान्ति नहीं जल सकती है, 

समराग्नि अभी टल सकती है। 

"पा तुझे धन्य है दुर्योधन, 

तू एकमात्र उसका जीवन 

तेरे बल की है आस उसे, 

तुझसे जय का विश्वास उसे 

तू संग न उसका छोडेगा, 

वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा? 


"क्या अघटनीय घटना कराल? 

तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल, 

बन सूत अनादर सहता है, 

कौरव के दल में रहता है, 

शर-चाप उठाये आठ प्रहार, 

पांडव से लड़ने हो तत्पर। 


"माँ का सनेह पाया न कभी, 

सामने सत्य आया न कभी, 

किस्मत के फेरे में पड़ कर, 

पा प्रेम बसा दुश्मन के घर 

निज बंधू मानता है पर को, 

कहता है शत्रु सहोदर को। 


"पर कौन दोष इसमें तेरा? 

अब कहा मान इतना मेरा 

चल होकर संग अभी मेरे, 

है जहाँ पाँच भ्राता तेरे 

बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, 

हम मिलकर मोद मनाएंगे। 


"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, 

बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ 

मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, 

तेरा अभिषेक करेंगे हम 

आरती समोद उतारेंगे, 

सब मिलकर पाँव पखारेंगे। 


"पद-त्राण भीम पहनायेगा, 

धर्माचिप चंवर डुलायेगा 

पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, 

सहदेव-नकुल अनुचर होंगे 

भोजन उत्तरा बनायेगी, 

पांचाली पान खिलायेगी 


"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! 

आनंद-चमत्कृत जग होगा 

सब लोग तुझे पहचानेंगे, 

असली स्वरूप में जानेंगे 

खोयी मणि को जब पायेगी, 

कुन्ती फूली न समायेगी। 


"रण अनायास रुक जायेगा, 

कुरुराज स्वयं झुक जायेगा 

संसार बड़े सुख में होगा, 

कोई न कहीं दुःख में होगा 

सब गीत खुशी के गायेंगे, 

तेरा सौभाग्य मनाएंगे। 


"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, 

साम्राज्य समर्पण करता हूँ 

यश मुकुट मान सिंहासन ले, 

बस एक भीख मुझको दे दे 

कौरव को तज रण रोक सखे, 

भू का हर भावी शोक सखे 


सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, 

क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, 

फिर कहा "बड़ी यह माया है, 

जो कुछ आपने बताया है 

दिनमणि से सुनकर वही कथा 

मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा 


"जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, 

उन्मन यह सोचा करता हूँ, 

कैसी होगी वह माँ कराल, 

निज तन से जो शिशु को निकाल 

धाराओं में धर आती है, 

अथवा जीवित दफनाती है? 


"सेवती मास दस तक जिसको, 

पालती उदर में रख जिसको, 

जीवन का अंश खिलाती है, 

अन्तर का रुधिर पिलाती है 

आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, 

नागिन होगी वह नारि नहीं। 


"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, 

इस पर न अधिक कुछ भी कहिये 

सुनना न चाहते तनिक श्रवण, 

जिस माँ ने मेरा किया जनन 

वह नहीं नारि कुल्पाली थी, 

सर्पिणी परम विकराली थी 


"पत्थर समान उसका हिय था, 

सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था 

गोदी में आग लगा कर के, 

मेरा कुल-वंश छिपा कर के 

दुश्मन का उसने काम किया, 

माताओं को बदनाम किया 


"माँ का पय भी न पीया मैंने, 

उलटे अभिशाप लिया मैंने 

वह तो यशस्विनी बनी रही, 

सबकी भौ मुझ पर तनी रही 

कन्या वह रही अपरिणीता, 

जो कुछ बीता, मुझ पर बीता 


"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन, 

राजाओं के सम्मुख मलीन, 

जब रोज अनादर पाता था, 

कह 'शूद्र' पुकारा जाता था 

पत्थर की छाती फटी नही, 

कुन्ती तब भी तो कटी नहीं 


"मैं सूत-वंश में पलता था, 

अपमान अनल में जलता था, 

सब देख रही थी दृश्य पृथा, 

माँ की ममता पर हुई वृथा 

छिप कर भी तो सुधि ले न सकी 

छाया अंचल की दे न सकी 
"पा पाँच तनय फूली-फूली, 

दिन-रात बड़े सुख में भूली 

कुन्ती गौरव में चूर रही, 

मुझ पतित पुत्र से दूर रही 

क्या हुआ की अब अकुलाती है? 

किस कारण मुझे बुलाती है? 



किस कारण मुझे बुलाती है? 


"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, 

सुत के धन धाम गंवाने पर 

या महानाश के छाने पर, 

अथवा मन के घबराने पर 

नारियाँ सदय हो जाती हैं 

बिछुडोँ को गले लगाती है? 


"कुन्ती जिस भय से भरी रही, 

तज मुझे दूर हट खड़ी रही 

वह पाप अभी भी है मुझमें, 

वह शाप अभी भी है मुझमें 

क्या हुआ की वह डर जायेगा? 

कुन्ती को काट न खायेगा? 


"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, 

मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ? 

कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, 

मेरा सुख या पांडव की जय? 

यह अभिनन्दन नूतन क्या है? 

केशव! यह परिवर्तन क्या है? 


"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, 

सब लोग हुए हित के कामी 

पर ऐसा भी था एक समय, 

जब यह समाज निष्ठुर निर्दय 

किंचित न स्नेह दर्शाता था, 

विष-व्यंग सदा बरसाता था 


"उस समय सुअंक लगा कर के, 

अंचल के तले छिपा कर के 

चुम्बन से कौन मुझे भर कर, 

ताड़ना-ताप लेती थी हर? 

राधा को छोड़ भजूं किसको, 

जननी है वही, तजूं किसको? 


"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, 

सच है की झूठ मन में गुनिये 

धूलों में मैं था पडा हुआ, 

किसका सनेह पा बड़ा हुआ? 

किसने मुझको सम्मान दिया, 

नृपता दे महिमावान किया? 


"अपना विकास अवरुद्ध देख, 

सारे समाज को क्रुद्ध देख 

भीतर जब टूट चुका था मन, 

आ गया अचानक दुर्योधन 

निश्छल पवित्र अनुराग लिए, 

मेरा समस्त सौभाग्य लिए 


"कुन्ती ने केवल जन्म दिया, 

राधा ने माँ का कर्म किया 

पर कहते जिसे असल जीवन, 

देने आया वह दुर्योधन 

वह नहीं भिन्न माता से है 

बढ़ कर सोदर भ्राता से है 


"राजा रंक से बना कर के, 

यश, मान, मुकुट पहना कर के 

बांहों में मुझे उठा कर के, 

सामने जगत के ला करके 

करतब क्या क्या न किया उसने 

मुझको नव-जन्म दिया उसने 


"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, 

जानते सत्य यह सूर्य-सोम 

तन मन धन दुर्योधन का है, 

यह जीवन दुर्योधन का है 

सुर पुर से भी मुख मोडूँगा, 

केशव ! मैं उसे न छोडूंगा 


"सच है मेरी है आस उसे, 

मुझ पर अटूट विश्वास उसे 

हाँ सच है मेरे ही बल पर, 

ठाना है उसने महासमर 

पर मैं कैसा पापी हूँगा? 

दुर्योधन को धोखा दूँगा? 


"रह साथ सदा खेला खाया, 

सौभाग्य-सुयश उससे पाया 

अब जब विपत्ति आने को है, 

घनघोर प्रलय छाने को है 

तज उसे भाग यदि जाऊंगा 

कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा 


"मैं भी कुन्ती का एक तनय, 

जिसको होगा इसका प्रत्यय 

संसार मुझे धिक्कारेगा, 

मन में वह यही विचारेगा 

फिर गया तुरत जब राज्य मिला, 

यह कर्ण बड़ा पापी निकला 


"मैं ही न सहूंगा विषम डंक, 

अर्जुन पर भी होगा कलंक 

सब लोग कहेंगे डर कर ही, 

अर्जुन ने अद्भुत नीति गही 

चल चाल कर्ण को फोड़ लिया 

सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया 


"कोई भी कहीं न चूकेगा, 

सारा जग मुझ पर थूकेगा 

तप त्याग शील, जप योग दान, 

मेरे होंगे मिट्टी समान 

लोभी लालची कहाऊँगा 

किसको क्या मुख दिखलाऊँगा? 


"जो आज आप कह रहे आर्य, 

कुन्ती के मुख से कृपाचार्य 

सुन वही हुए लज्जित होते, 

हम क्यों रण को सज्जित होते 

मिलता न कर्ण दुर्योधन को, 

पांडव न कभी जाते वन को 


"लेकिन नौका तट छोड़ चली, 

कुछ पता नहीं किस ओर चली 

यह बीच नदी की धारा है, 

सूझता न कूल-किनारा है 

ले लील भले यह धार मुझे, 

लौटना नहीं स्वीकार मुझे 


"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, 

भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? 

कुल की पोशाक पहन कर के, 

सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के? 

इस झूठ-मूठ में रस क्या है? 

केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है? 


"सिर पर कुलीनता का टीका, 

भीतर जीवन का रस फीका 

अपना न नाम जो ले सकते, 

परिचय न तेज से दे सकते 

ऐसे भी कुछ नर होते हैं 

कुल को खाते औ' खोते हैं


"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, 

चलता ना छत्र पुरखों का धर। 

अपना बल-तेज जगाता है, 

सम्मान जगत से पाता है। 

सब देख उसे ललचाते हैं, 

कर विविध यत्न अपनाते हैं 


"कुल-जाति नही साधन मेरा, 

पुरुषार्थ एक बस धन मेरा। 

कुल ने तो मुझको फेंक दिया, 

मैने हिम्मत से काम लिया 

अब वंश चकित भरमाया है, 

खुद मुझे ढूँडने आया है। 


"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? 

अपने प्रण से विचरूँगा क्या? 

रण मे कुरूपति का विजय वरण, 

या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, 

हे कृष्ण यही मति मेरी है, 

तीसरी नही गति मेरी है। 


"मैत्री की बड़ी सुखद छाया, 

शीतल हो जाती है काया, 

धिक्कार-योग्य होगा वह नर, 

जो पाकर भी ऐसा तरुवर, 

हो अलग खड़ा कटवाता है 

खुद आप नहीं कट जाता है। 


"जिस नर की बाह गही मैने, 

जिस तरु की छाँह गहि मैने, 

उस पर न वार चलने दूँगा, 

कैसे कुठार चलने दूँगा, 

जीते जी उसे बचाऊँगा, 

या आप स्वयं कट जाऊँगा, 


"मित्रता बड़ा अनमोल रतन, 

कब उसे तोल सकता है धन? 

धरती की तो है क्या बिसात? 

आ जाय अगर बैकुंठ हाथ। 

उसको भी न्योछावर कर दूँ, 

कुरूपति के चरणों में धर दूँ। 


"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ, 

उस दिन के लिए मचलता हूँ, 

यदि चले वज्र दुर्योधन पर, 

ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर। 

कटवा दूँ उसके लिए गला, 

चाहिए मुझे क्या और भला? 


"सम्राट बनेंगे धर्मराज, 

या पाएगा कुरूरज ताज, 

लड़ना भर मेरा काम रहा, 

दुर्योधन का संग्राम रहा, 

मुझको न कहीं कुछ पाना है, 

केवल ऋण मात्र चुकाना है। 


"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? 

साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? 

क्या नहीं आपने भी जाना? 

मुझको न आज तक पहचाना? 

जीवन का मूल्य समझता हूँ, 

धन को मैं धूल समझता हूँ। 


"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, 

साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं। 

भुजबल से कर संसार विजय, 

अगणित समृद्धियों का सन्चय, 

दे दिया मित्र दुर्योधन को, 

तृष्णा छू भी ना सकी मन को। 


"वैभव विलास की चाह नहीं, 

अपनी कोई परवाह नहीं, 

बस यही चाहता हूँ केवल, 

दान की देव सरिता निर्मल, 

करतल से झरती रहे सदा, 

निर्धन को भरती रहे सदा।


"तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? 

पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? 

चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास, 

कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास, 

पर वह भी यहीं गवाना है, 

कुछ साथ नही ले जाना है। 


"मुझसे मनुष्य जो होते हैं, 

कंचन का भार न ढोते हैं, 

पाते हैं धन बिखराने को, 

लाते हैं रतन लुटाने को, 

जग से न कभी कुछ लेते हैं, 

दान ही हृदय का देते हैं। 


"प्रासादों के कनकाभ शिखर, 

होते कबूतरों के ही घर, 

महलों में गरुड़ ना होता है, 

कंचन पर कभी न सोता है। 

रहता वह कहीं पहाड़ों में, 

शैलों की फटी दरारों में। 


"होकर सुख-समृद्धि के अधीन, 

मानव होता निज तप क्षीण, 

सत्ता किरीट मणिमय आसन, 

करते मनुष्य का तेज हरण। 

नर विभव हेतु लालचाता है, 

पर वही मनुज को खाता है। 


"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल, 

नर भले बने सुमधुर कोमल, 

पर अमृत क्लेश का पिए बिना, 

आताप अंधड़ में जिए बिना, 

वह पुरुष नही कहला सकता, 

विघ्नों को नही हिला सकता। 


"उड़ते जो झंझावतों में, 

पीते सो वारी प्रपातो में, 

सारा आकाश अयन जिनका, 

विषधर भुजंग भोजन जिनका, 

वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं, 

धरती का हृदय जुड़ाते हैं। 


"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, 

सिर पर ना चाहिए मुझे ताज। 

दुर्योधन पर है विपद घोर, 

सकता न किसी विधि उसे छोड़, 

रण-खेत पाटना है मुझको, 

अहिपाश काटना है मुझको। 


"संग्राम सिंधु लहराता है, 

सामने प्रलय घहराता है, 

रह रह कर भुजा फड़कती है, 

बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं, 

चाहता तुरत मैं कूद पडू, 

जीतूं की समर मे डूब मरूं। 


"अब देर नही कीजै केशव, 

अवसेर नही कीजै केशव। 

धनु की डोरी तन जाने दें, 

संग्राम तुरत ठन जाने दें, 

तांडवी तेज लहराएगा, 

संसार ज्योति कुछ पाएगा। 


"पर, एक विनय है मधुसूदन, 

मेरी यह जन्मकथा गोपन, 

मत कभी युधिष्ठिर से कहिए, 

जैसे हो इसे छिपा रहिए, 

वे इसे जान यदि पाएँगे, 

सिंहासन को ठुकराएँगे। 


"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, 

सारी संपत्ति मुझे देंगे। 

मैं भी ना उसे रख पाऊँगा, 

दुर्योधन को दे जाऊँगा। 

पांडव वंचित रह जाएँगे, 

दुख से न छूट वे पाएँगे। 


"अच्छा अब चला प्रणाम आर्य, 

हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य। 

रण मे ही अब दर्शन होंगे, 

शार से चरण:स्पर्शन होंगे। 

जय हो दिनेश नभ में विहरें, 

भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें।" 


रथ से राधेय उतार आया, 

हरि के मन मे विस्मय छाया, 

बोले कि "वीर शत बार धन्य, 

तुझसा न मित्र कोई अनन्य, 

तू कुरूपति का ही नही प्राण, 

नरता का है भूषण महान।"



आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
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Friday, July 23, 2021

श्री कृष्ण की चेतावनी|तृतीय सर्ग|भाग-०१|रश्मिरथी|Ep-12|रामधारी सिंह दिनकर|PoemNagari|NbyKishor





   प्यारे मित्रों,
द्वितीय सर्ग अब तक आपने कर्ण-परशुराम संवाद सुना,आज से हमलोग तृतीय सर्ग में चलेंगे, जिसमें पाण्डव अज्ञातवास से लौट आएं हैं ,
अब आगे की कहानी सुनिए -

हो गया पूर्ण अज्ञात वास, 

पाडंव लौटे वन से सहास, 

पावक में कनक-सदृश तप कर, 

वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, 

नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, 

कुछ और नया उत्साह लिये



सच है, विपत्ति जब आती है, 

कायर को ही दहलाती है, 

शूरमा नहीं विचलित होते, 

क्षण एक नहीं धीरज खोते, 

विघ्नों को गले लगाते हैं, 

काँटों में राह बनाते हैं। 


मुख से न कभी उफ कहते हैं, 

संकट का चरण न गहते हैं, 

जो आ पड़ता सब सहते हैं, 

उद्योग-निरत नित रहते हैं, 

शूलों का मूल नसाने को, 

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। 


है कौन विघ्न ऐसा जग में, 

टिक सके वीर नर के मग में 

खम ठोंक ठेलता है जब नर, 

पर्वत के जाते पाँव उखड़। 

मानव जब जोर लगाता है, 

पत्थर पानी बन जाता है। 


गुण बड़े एक से एक प्रखर, 

हैं छिपे मानवों के भीतर, 

मेंहदी में जैसे लाली हो, 

वर्तिका-बीच उजियाली हो। 

बत्ती जो नहीं जलाता है 

रोशनी नहीं वह पाता है। 


पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, 

झरती रस की धारा अखण्ड, 

मेंहदी जब सहती है प्रहार, 

बनती ललनाओं का सिंगार। 

जब फूल पिरोये जाते हैं, 

हम उनको गले लगाते हैं।


वसुधा का नेता कौन हुआ? 

भूखण्ड-विजेता कौन हुआ? 

अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? 

नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ? 

जिसने न कभी आराम किया, 

विघ्नों में रहकर नाम किया। 


जब विघ्न सामने आते हैं, 

सोते से हमें जगाते हैं, 

मन को मरोड़ते हैं पल-पल, 

तन को झँझोरते हैं पल-पल। 

सत्पथ की ओर लगाकर ही, 

जाते हैं हमें जगाकर ही। 


वाटिका और वन एक नहीं, 

आराम और रण एक नहीं। 

वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, 

पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड। 

वन में प्रसून तो खिलते हैं, 

बागों में शाल न मिलते हैं। 


कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, 

छाया देता केवल अम्बर, 

विपदाएँ दूध पिलाती हैं, 

लोरी आँधियाँ सुनाती हैं। 

जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, 

वे ही शूरमा निकलते हैं। 


बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, 

मेरे किशोर! मेरे ताजा! 

जीवन का रस छन जाने दे, 

तन को पत्थर बन जाने दे। 

तू स्वयं तेज भयकारी है, 

क्या कर सकती चिनगारी है? 


वर्षों तक वन में घूम-घूम, 

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, 

सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, 

पांडव आये कुछ और निखर। 

सौभाग्य न सब दिन सोता है, 

देखें, आगे क्या होता है।


मैत्री की राह बताने को, 

सबको सुमार्ग पर लाने को, 

दुर्योधन को समझाने को, 

भीषण विध्वंस बचाने को, 

भगवान् हस्तिनापुर आये, 

पांडव का संदेशा लाये। 


'दो न्याय अगर तो आधा दो, 

पर, इसमें भी यदि बाधा हो, 

तो दे दो केवल पाँच ग्राम, 

रक्खो अपनी धरती तमाम। 

हम वहीं खुशी से खायेंगे, 

परिजन पर असि न उठायेंगे! 


दुर्योधन वह भी दे ना सका, 

आशिष समाज की ले न सका, 

उलटे, हरि को बाँधने चला, 

जो था असाध्य, साधने चला। 

जब नाश मनुज पर छाता है, 

पहले विवेक मर जाता है। 


हरि ने भीषण हुंकार किया, 

अपना स्वरूप-विस्तार किया, 

डगमग-डगमग दिग्गज डोले, 

भगवान् कुपित होकर बोले- 

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, 

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। 


यह देख, गगन मुझमें लय है, 

यह देख, पवन मुझमें लय है, 

मुझमें विलीन झंकार सकल, 

मुझमें लय है संसार सकल। 

अमरत्व फूलता है मुझमें, 

संहार झूलता है मुझमें। 


'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, 

भूमंडल वक्षस्थल विशाल, 

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, 

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। 

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, 

सब हैं मेरे मुख के अन्दर। 


'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, 

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, 

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, 

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। 

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, 

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।


'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, 

शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश, 

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, 

शत कोटि दण्डधर लोकपाल। 

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, 

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। 


'भूलोक, अतल, पाताल देख, 

गत और अनागत काल देख, 

यह देख जगत का आदि-सृजन, 

यह देख, महाभारत का रण, 

मृतकों से पटी हुई भू है, 

पहचान, कहाँ इसमें तू है। 


'अम्बर में कुन्तल-जाल देख, 

पद के नीचे पाताल देख, 

मुट्ठी में तीनों काल देख, 

मेरा स्वरूप विकराल देख। 

सब जन्म मुझी से पाते हैं, 

फिर लौट मुझी में आते हैं। 


'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, 

साँसों में पाता जन्म पवन, 

पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, 

हँसने लगती है सृष्टि उधर! 

मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, 

छा जाता चारों ओर मरण। 


'बाँधने मुझे तो आया है, 

जंजीर बड़ी क्या लाया है? 

यदि मुझे बाँधना चाहे मन, 

पहले तो बाँध अनन्त गगन। 

सूने को साध न सकता है, 

वह मुझे बाँध कब सकता है? 


'हित-वचन नहीं तूने माना, 

मैत्री का मूल्य न पहचाना, 

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, 

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। 

याचना नहीं, अब रण होगा, 

जीवन-जय या कि मरण होगा। 


'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, 

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, 

फण शेषनाग का डोलेगा, 

विकराल काल मुँह खोलेगा। 

दुर्योधन! रण ऐसा होगा। 

फिर कभी नहीं जैसा होगा। 


'भाई पर भाई टूटेंगे, 

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, 

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, 

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। 

आखिर तू भूशायी होगा, 

हिंसा का पर, दायी होगा।' 


थी सभा सन्न, सब लोग डरे, 

चुप थे या थे बेहोश पड़े। 

केवल दो नर ना अघाते थे, 

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। 

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, 

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!


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Thursday, July 22, 2021

क्या कर्ण की गुरूभक्ति का यही अंजाम होना था-ब्रह्मास्त्र भूल जाएगा ?|रश्मिरथी|Ep-11|दिनकर जी|PoemNagari

अब तक आपने सुना की गुरू जी कर्ण की जंघा पर सिर रख कर एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे हैं, की अचानक से एक विच्छू आकर कर्ण को डंक मारने लगता है,और उसके अंग को कुतर-कुतर कर खाने लगता है ,अब सुनिए आगे की कहानी -





कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,

बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?

पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,

बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।


किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती,

सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती।

सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,

गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा।


बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,

आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।

किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,

परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।


कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,

बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।

परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,

सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।'


तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको,

महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?

मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,

क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।


'निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,

छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?

पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,

लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।'


परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,

फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।

दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?

ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?


'सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,

किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।

सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,

बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।


'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,

किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?

कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?

इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।


'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,

परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'

'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,

मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!


'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,

जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ

छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,

आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।


'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,

तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।

पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,

महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।


'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,

करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।

पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,

मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।


'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,

ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।

पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,

अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?


'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,

एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।

गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,

पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?


'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?

प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।

दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?

अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?


'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,

बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।

प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,

इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'


लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,

दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।

बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?

निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?


'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,

मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।

देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,

पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

'तूने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से,

क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?

किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,

सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।


'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,

तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।

पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,

परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।


'सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?

किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?

सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?

जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?'


पद पर बोला कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी,

करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।

बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,

दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।'


परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,

तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?

पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,

परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।


'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,

पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।

सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,

है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।


कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?

दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?

वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?

अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'


परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,

जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।

इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,

मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।


'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?

एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।

नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,

नये भाव, नूतन उमंग से, वीर बने रहते नूतन।


'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,

इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।

अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,

भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।


'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,

रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।

हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,

सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?


'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।

इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।

अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।

देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।


'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,

मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय?

अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं,

भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।


जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो

बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।

भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,

फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।'


इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना,

जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा सपना।

छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,

और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।


परशुधर के चरण की धूलि लेकर, उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,

निराशा सेविकल, टूटा हुआ-सा, किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,
चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में,

कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।





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Wednesday, July 21, 2021

क्या सचमुच में कर्ण ने अपने गुरु को छला था ?|रश्मिरथी|Ep-10|रामधारी सिंह दिनकर|PoemNagari|Narrated by Kishor

पीछले अंक में आपने सुना कि राजाओं के छल-पर्पन्च की पोल खोलते हुए परशुराम राजाओं की शोषणकारी नीतियों की कड़ी आलोचना करते हैं, और ब्राहृमणो को खड्ग उठाने को प्रेरित करते हैं, और कहते हैं कि राजा सिर्फ अपना राज्य बढ़ाने और अधिक से अधिक जनों पर शोषण करने के लिए ही युद्ध करते हैं ,ना की किसी के भलाई के लिए - सही मायने में वही वीर है जो लोगों की भलाई के लिए खड्ग उठाता है, शायद इसी कारण परशुराम सिर्फ ब्रहृमणो को ही शिक्षा देते हैं।
अब आगे की कहानी सुनिए -









'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,

सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।

'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,

दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।


'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,

परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?

पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,

तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।


'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,

एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।

निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,

तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?


'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,

मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।

गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?

और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?


'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,

पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।

और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,

एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?


'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?

कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?

धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?

जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?


'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?

सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?

मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,

चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।


'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,

कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,

तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;

नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?


'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,

छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!

हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,

जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'


गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,

तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।

वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,

और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।



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Tuesday, July 20, 2021

परशुराम ब्राह्मणों को खड्ग उठाने को क्यों प्रेरित करते हैं ?|रश्मिरथी|Ep-08|रामधारी सिंह दिनकर|PoemNagari|Narrated by Kishor

पीछले अंक में आपने सुना कि आश्रम के समिप एक वृक्ष के नीचे गुरु परशुराम कर्ण की जांघों पर सिर रखकर सो रहे हैं और कर्ण सेवामग्न है, गुरु जी भी कर्ण को बहुत मानते हैं, कहते हैं की
'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

अब आगे की कहानी सुनिए -



'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,

नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।

विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?

कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?

जन्म साथ, शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?

क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,

मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।

खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,

इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।

और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,

राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,

डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।

औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,

परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,

और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।

रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,

बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,

भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।

ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,

और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,

ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।

कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,

धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?

यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।

चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,

जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

'सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।

जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;

पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,

भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को।

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,

ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो,

हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

'रोज कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है,

इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,

जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है,

मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।

सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो,

विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।


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Monday, July 19, 2021

परशुराम को कर्ण में कौन गुण दिखता है जो उसपर इतना प्यार बरसाते हैं ?|रश्मिरथी|Ep-08|रामधारी सिंह दिनकर|PoemNagari|Narrated by Kishor

प्यारे दोस्तों
 पीछले अंक में आपने सुना की वन में स्थित 
परशुराम के कुटीया के आसपास  प्रकृति बड़ी ही सुन्दर  छटा बिखेरे हुए हैं । आश्चर्य की बात यह है की एक तरफ अग्निकुंड तो दुसरे तरफ़ परशुराम के अस्त्र शस्त्र, यह जान पाना बड़ा मुश्किल है कि यह किसी तपस्वी की कुटिया है या की किसी योद्धा की ....
अब आगे की कहानी सुनिए -



परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,

क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।

तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,

तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।


किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?

एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?

कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,

रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!


मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,

शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।

यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,

भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।


हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,

सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।

पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,

पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।


कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,

कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,

चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,

कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।


'वृद्ध देह, तप से कृश काया, उस पर आयुध-सञ्चालन,

हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।

किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,

और रात-दिन मुझ पर दिखलाते रहते ममता कितनी।


'कहते हैं, 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,

मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?

अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,

सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।


'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,

और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।

इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,

इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।





आज के लिए बस इतना ही,
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अगले भाग की कहानी आती  ही आपको सबसे पहले पता चले, इसके लिए PoemNagari को Subscribe कर bell icon को on कर लें,
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जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...