Monday, July 19, 2021

अति क्रोधी, क्षत्रिय विनाशक परशुराम के कुटिया में,कर्ण क्या कर रहा है ??|रश्मिरथी|Ep-07|रामधारी सिंह दिनकर|PoemNagari|Narrated by Kishor

पहले सर्ग में अब तक आपने सुना कि कैसे कर्ण और दुर्योधन में मित्रता हुई, कैसे कर्ण अंग देश का राजा बना,और अंत में आपने सुना कि जब सारे लोग महल को वापस जा रहे हैं, रनिवास भी लौट रहा है तो कुंती के पांव उठाए नहीं उठते, क्योंकि अब तक कुंती यह जान चुकी होती है की कर्ण कोई और नहीं उसी का पुत्र है, 
आज से हम लोग द्वितीय सर्ग को सुनेगे जिसमें कर्ण परशुराम से वन में उनकी खुब सेवा कर धनुर्विद्या सीख रहा होता है- 
तो सुनते हैं आगे की कहानी 


शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।

जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,

हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।


आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,

शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।

कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,

कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।


हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,

भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,

धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?

झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।


बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,

वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।

सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,

नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।


अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,

एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।

चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,

लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।


श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,

युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।

हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?

जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?


आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?

या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?

मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?

या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?



आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
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