Tuesday, March 29, 2022

If by Rudyard Kipling ( A Life Changing Poem ) || PoemNagari

Rudyard Kipling was a prolific poet, novelist and journalist and one of the most well-known Victorian writers of his time. in 1907, he was awarded the Nobel Prize for Literature for his great body of work which included 'The Jungle Book' and his stoic poem 'If'. In perhaps one of the most inspirational poems ever written, Kipling outlines for his son the behaviours and attitudes it takes to become a man, advising his son about how to perceive the world and life's challenges so that he can both learn from his experiences and resolutely overcome barriers.

Title of the Poem - If 
                    Writer - Rudyard Kipling

If you can keep your head when all about you   
    Are losing theirs and blaming it on you,   
If you can trust yourself when all men doubt you,
    But make allowance for their doubting too;   
If you can wait and not be tired by waiting,
    Or being lied about, don’t deal in lies,
Or being hated, don’t give way to hating,
    And yet don’t look too good, nor talk too wise:

If you can dream—and not make dreams your master;   
    If you can think—and not make thoughts your aim;   
If you can meet with Triumph and Disaster
    And treat those two impostors just the same;   
If you can bear to hear the truth you’ve spoken
    Twisted by knaves to make a trap for fools,
Or watch the things you gave your life to, broken,
    And stoop and build ’em up with worn-out tools:

If you can make one heap of all your winnings
    And risk it on one turn of pitch-and-toss,
And lose, and start again at your beginnings
    And never breathe a word about your loss;
If you can force your heart and nerve and sinew
    To serve your turn long after they are gone,   
And so hold on when there is nothing in you
    Except the Will which says to them: ‘Hold on!’

If you can talk with crowds and keep your virtue, If neither foes nor loving friends can hurt you,
    If all men count with you, but none too much; If you can fill the unforgiving minute
    With sixty seconds’ worth of distance run,   
Yours is the Earth and everything that’s in it,   
    And—which is more—you’ll be a Man, my son!

परंपरा ||हिन्दी कविता || रामधारी सिंह दिनकर || PoemNagari

प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह "दिनकर" जी द्वारा लिखित है ,

कविता का शीर्षक - परंपरा
                 लेखक - रामधारी सिंह "दिनकर"


परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगाना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम

Friday, March 25, 2022

उतनी दूर पिया तू मेरे गांव से ||हिन्दी कविता || कुंअर बेचैन ||PoemNagari #love #poetry #hindipoetry

प्रस्तुत कविता कुंअर बेचैन जी द्वारा लिखित है।

        कविता का शीर्षक - उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से
                         लेखक - कुंअर बेचैन

जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना



जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना

जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है

जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

पड़ोसी ||हिन्दी कविता || अटल बिहारी वाजपेयी || काश्मीर पर भारत का नजरिया ||PoemNagari #hindipoetry

प्रस्तुत कविता अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा लिखित है।
 
     कविता का शीर्षक - पड़ोसी
                    लेखक - अटल बिहारी वाजपेयी



एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता,
अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता।
त्याग तेज तपबअगणितल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,
दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता।

इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,
चिनगारी का खेल बुरा होता है ।
औरों के घर आग लगाने का जो सपना,
वो अपने ही घर में सदा खरा होता है।

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,
अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो,
आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?
तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,
माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई?

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को
दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से
तुम बच लोगे यह मत समझो।

धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो।
हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो।

जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,
अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,
स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे
अगणित जीवन यौवन अशेष।

अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,
काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा
एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,
पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा ।

Wednesday, March 23, 2022

हिरोशिमा की पीड़ा || हिन्दी कविता || अटल बिहारी वाजपेयी || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा लिखित है ।

किसी रात को
मेरी नींद चानक उचट जाती है
आँख खुल जाती है
मैं सोचने लगता हूँ कि
जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का
आविष्कार किया था
वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण
नरसंहार के समाचार सुनकर
रात को कैसे सोए होंगे?
क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही
ये अनुभूति नहीं हुई कि
उनके हाथों जो कुछ हुआ
अच्छा नहीं हुआ!

यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा
किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें
कभी माफ़ नहीं करेगा!

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं || हिन्दी कविता || अटल बिहारी वाजपेयी || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा लिखित है ।

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बुंद-बुंद गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।

समय से अनुरोध || हिन्दी कविता | अशोक वाजपेयी || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अशोक वाजपेयी जी द्वारा लिखित है ।

समय, मुझे सिखाओ
कैसे भर जाता है घाव?-पर
एक अदृश्य फाँस दुखती रहती है
जीवन-भर|

समय, मुझे बताओ
कैसे जब सब भूल चुके होंगे
रोज़मर्रा के जीवन-व्यापार में
मैं याद रख सकूँ
और दूसरों से बेहतर न महसूस करूँ|

समय, मुझे सुझाओ
कैसे मैं अपनी रोशनी बचाए रखूँ
तेल चुक जाने के बाद भी
ताकि वह लड़का
उधार लाई महँगी किताब एक रात में ही पूरी पढ़ सके|

समय, मुझे सुनाओ वह कहानी
जब व्यर्थ पड़ चुके हों शब्द,
अस्वीकार किया जा चुका हो सच,
और बाक़ि न बची हो जूझने की शक्ति
तब भी किसी ने छोड़ा न हो प्रेम,
तजी न हो आसक्ति,
झुठलाया न हो अपना मोह|

समय, सुनाओ उसकी गाथा
जो अन्त तक बिना झुके
बिना गिड़गिड़ाए या लड़खड़ाए,
बिना थके और हारे, बिना संगी-साथी,
बिना अपनी यातना को सबके लिए गाए,
अपने अन्त की ओर चला गया|

समय, अँधेरे में हाथ थामने,
सुनसान में गुनगुनाहट भरने,
सहारा देने, धीरज बँधाने
अडिग रहने, साथ चलने और लड़ने का
कोई भूला-बिसरा पुराना गीत तुम्हें याद हो
तो समय, गाओ
ताकि यह समय,
यह अँधेरा,
यह भारी असह्य समय कटे!

Saturday, March 19, 2022

इस शहर मे | अच्युतानंद मिश्र |हिंदी कविता | PoemNagari

प्रस्तुत कविता अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा लिखित है।

शहर में नदी सूख गई है
पेड़ अब ख़ामोश रहते हैं
सड़कों पर बहुत है भीड़
पर इंसान नज़र नहीं आते
टिफ़िन का खाली डिब्बा
साइकिल के हैंडिल से टकराकर
कभी-कभी तोड़ देता है इस सन्नाटे को

शाम का ये वक़्त
और शामों की तरह
चुपचाप ख़ामोश
दर्ज़ किए बग़ैर कुछ भी
गुज़र जाएगा
अँधेरा अभी पसरने वाला है
सुबह जो फूल टूट कर गिरे थे
उनकी पँखुड़ियाँ धूल में मिल चुकी हैं
चाय की दुकानों के बाहर
लोग उठ रहे हैं
जली हुई चायपत्ती की ख़ुशबू
और सिगरेट के धुएँ ने
कोई षड्यंत्र-सा कर रखा है

लोग
लौट रहे हैं
बिना चेहरे वाले लोग
लौटकर तलाशेंगे
अपने चेहरे
दिन भर की मेहनत, हताशा, ज़िल्लत
रात की एक आदिम भूख में
बदल जाएगी
भूख-भूख बस भूख
फैल जाएगी, हर सिम्त

उस वक़्त दाँत के खोलों में फँसा
रोटी का टुकड़ा
माँस की तरह हो जाएगा
लोग पाग़ल हो जाएँगे ।

भूख-भूख बस भूख की बाबत सोचेंगे
और फैल जाएगा अँधेरा
अँधेरा अँधेरे से मिलकर
गहरा जाएगा
रात की ठिठुरन, भूख, प्यास, सन्नाटा
सब एक बिन चेहरे वाले राक्षस में
बदल जाएँगे
सूखी हुई नदी
ख़ामोश पेड़ों से
नहीं बोलेगा कोई

इस गहरे अँधेरे में
कहीं दूर बहुत दूर
जलती हुई अलाव के भीतर
चिटकेगी कोई चिंगारी भी
मैं वर्षों तक
बस सोचता रहूँगा उसी की बाबत

Friday, March 18, 2022

चिरैया धीरे धीरे बोल | अजय पाठक | हिन्दी कविता | PoemNagari

प्रस्तुत कविता अजय पाठक जी द्वारा लिखित है।

चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

अंतर्मन के अध्यायों के पन्नों को मत खोल।
अभी-अभी तो अपनी आँखें प्राची ने खोला है,
मलयानल है, मन का तरुवर अभी नहीं डोला है।
अरी निर्दयी! अभी हृदय में पीड़ा तो मत घोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

विरह-वेदना में ही गुंफित तेरा गुंजित स्वर है,
सत्य सनातन यह भी लेकिन, सुख भी तो नश्वर है।
क्षण भर का जीवन है अपनी! बातों में रस घोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

उगते सूरज को अंबर में थोड़ा तो चढ़ने दे,
पीडा की लंबी परछाई बढ़ती है बढ़ने दे,
धूप-छाँव के चलते क्रम को अनुभव से ही तोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

तेरा यह आलाप हृदय को बेकल कर जाता है,
मन के सूखे अंतःसर में सागर भर जाता है,
महाप्रलय के द्वार-अबूझे-शब्दों से मत खोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

झरते वन का सूखा तरुवर अपना ठौर-ठिकाना,
ऊपर से तेरा यह निष्ठुर विरही तान सुनाना,
नयन-कोर से झर जाते हैं रतन कई अनमोल।
चिरइया, धीरे-धीरे बोल!

सिर्फ़ | हिन्दी कविता | अनिरुद्ध नीरव |PoemNagari

वक्त हमेशा ही साक्षी रहा है, हमारे सुख और दु:ख का , अनिरुद्ध नीरव जी की कविता जो मैं आज आपको सुनाने जा रहा हूं - यह भी कुछ वक्त की ही कहानी कहती हैं - बसंत ऋतु आने से पहले वृक्ष अपने पत्ते गिरा देते हैं , ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि शायद ये पेड़ सुख गए हैं पर ऐसा नहीं होता, बसंत ऋतु के आते ही इसमें फिर से हरियाली छा जाती है ।


प्रस्तुत कविता अनिरुद्ध नीरव जी द्वारा लिखित है।
कविता का शीर्षक - सिर्फ़
               लेखक - अनिरुद्ध नीरव

पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।

अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
                लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।

अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।

ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है

फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
               इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।

प्रेम में पड़ी लड़की | हिन्दी कविता |आनंद गुप्ता |PoemNagari

प्रस्तुत कविता आनंद गुप्ता जी द्वारा लिखित है,

कविता का शीर्षक - प्रेम में पड़ी लड़की
               लेखक - आनंद गुप्ता


वह सारी रात आकाश बुहारती रही
उसका दुपट्टा तारों से भर गया
टेढ़े चाँद को तो उसने
अपने जूड़े मे खोंस लिया
खिलखिलाती हुई वह
रात भर हरसिंगार सी झरी
नदी के पास
वह नदी के साथ बहती रही
इच्छाओं के झरने तले
नहाती रही खूब-खूब
बादलों पर चढ़कर
वह काट आई आकाश के चक्कर
बारिश की बूँदों को तो सुंदर सपने की तरह
उसने अपनी आँखों में भर लिया
आईने में आज वह सबसे सुंदर दिखी
उसके हृदय के सारे बंद पन्ने खुलकर
सेमल के फाहे की तरह हवा में उड़ने लगे
रोटियाँ सेंकती हुई
कई बार जले उसके हाथ
उसने आज
आग से लड़ना सीख लिया।




भोजपुरी कविता | बापू | कलक्टर सिंह ' केसरी ' | PoemNagari

प्रस्तुत कविता कलक्टर सिंह 'केसरी' जी द्वारा लिखित है ,
प्यारे मित्रों,
सारी दुनिया में सत्य और अहिंसा के जोत जगाने वाले हमारे प्यारे बापू , हमारे राष्ट्रपिता , सचमुच ही एक असामान्य व्यक्तित्व के धनी थे । आज मैं कलक्टर सिंह ‘केसरी’ जी की कविता' बापू ' को सुनेंगे जा रहा हूं जो भोजपुरी भाषा में बहुत ही सुन्दर ढंग से लिखी गई है ।

कइसे मानीं हम जोत चान-सूरुज के उतरल माटी में ?
कइसे मानीं भगवान समा गइलन मानुस के काठी में ?
जर गइल फिरंगिनि के लंका, बाजलि आजादी के डंका,
अइसन अगिया बैताल जगवलन कइसे एक लुकाठी में ?

कइसे मानी हम बापू के परगास नजर से दूर भइल ?
अबहूँ बाड़न ऊ आसमान के चमचमात जोन्हीं अइसन !
जे भूल गइल बापू के उनका खातिर घुप्प अन्हरिया बा।
जे उनुकर नीति निबहले बा उनुका खातिर दुपहरिया बा।

जेकरा भीतर के आँख रही, ऊ बापू के अबहूँ देखी।
जे आन्हर बा उनुका खातिर त परबत बनल देहरिया बा।
हम समुझत बानीं मौत खेल ह, एगो आँखमिचौनी सन।
बापू रहलन इंसान बात ई लागत अनहोनी अइसन।

Thursday, March 17, 2022

भोजपुरी कविता | घूँघट सरकावऽ | गुरुचरण सिंह | PoemNagari

प्रस्तुत कविता गुरुचरण सिंह जी द्वारा लिखित है ।
अत्याचार करल जेतना बड़का गुनाह बा , ओतने बडका गुनाह बा येके सहल ।
अक्सर हमनी के समाज और system में हो रहल भ्रष्टाचार के चुपचाप सहत रहेनीसन , जबना के कारण ई स्वार्थी रूपी दानव और विशाल होके लोगन के जीनगी और उनकर हक के खा जाला ।
अब समय आ गइल बा की हमनी के अपन कर्तव्य और अधिकार के समझ के समाज और देश के विकास में सहायोगी बनी सन , शिक्षा , स्वास्थ्य, रोजगार और संपत्ति  चंद लोगन के बापउती नईखे ये पर सबके अधिकार बा ,
येकरा अभाव के कारण कवनो आदमी के सर्वांगीण विकास संभव नईखे ।
आज के ई कविता एक कवि के समाज के प्रति जागरूक उत्तरदायित्व का होला ओके बतावता ।


कविता का शीर्षक - घूंघट सरकावऽ
लेखक - गुरुचरण सिंह

गुनगुनात रहलऽ जिनिगी भर
अबो कवनो गीत सुनातऽ।
मंजूषा में बन्द ओजमय
कविता के घूँघट सरकावऽ॥
पड़े मर्म पर चोट, व्यक्ति
आहत होके गिर जाला
तब उठेला कलम काव्य
कागज पर तबे रचाला
देखे जब निर्बल के संग
दानव के राड़ बेसाहल
कवि तब निर्भयता से छाती
खोल खड़ा हो जाला
दानवता से त्रस्त मनुज के
व्यथा कथा बतलावऽ।
मंजूषा में बन्द................
जब अदिमी रावन के भय से
त्राहि त्राहि चिकरेला
बड़का न्याय प्रिय जोद्धा ना
भयवश जब घर से निकलेला।
मरघट के सन्नाटा में
सब मुँह जाब के सिसके लागे
पोंछे बदे लोर कवि ले के
कलम हाथ में तबे चलेला
कायरता से ग्रस्त मनुज के
तू अमृत संतान बनावऽ।
मंजूषा में................।
देखऽ अब एहिजा रक्षक
भक्षक बन उतरि गइल बा
भइल सिपाही चोर
सब घुसखोर भइल बा।
देश बची कइसे जब रजे
दुसुमन से मिल गइलन
भइल खजाना खाली इ सब
उन्हुके कइल धइल बा
बाड़ऽ काहे चूप इहाँ
आवऽ रहस्य बतलावऽ
मंजूषा...........................।
देखऽ कवनो बेटी के
ईंज्जत निलाम हो जाता
भय से और लालच से अब
बापो गुलाम हो जाता।
निर्भय हो के अत्याचारी
घुम रहल बा सगरो
जंगलराज भइल एहिजा
जिनिगी छेदाम हो जाता।
जनमन के नैराश्य मिटा
आशा के दीप जरावऽ।
मंजूषा............................॥
भला बचाई कइसे ऊ
जे खुदे लूट रहल बा
जनमन के आशा आके देखऽ
अब टूट रहल बा
क्षणिक स्वार्थ में जननेता
बैरी से मिल जाताड़न
घर के भेदी लंका ढाहे
साँचे बात कहल बा
तुलसी चंद कबीर गुप्त
भूषण बन देश बचावऽ।
मंजूषा............................॥
बहुते गीत प्रेम के गवलऽ
महराजन के हक में
बाकिर कहाँ प्रेम उमड़त बा
जनमन के रग-रग में
स्वार्थ प्रेम पर हावी होके
निर्भय बन इठलाता।
खून बहे अदिमिन के देखऽ
सत्ता खातिर जग में
स्वार्थ रहित निश्छलता से
परिपूर्ण प्रेम बरसावऽ।
मंजूषा में बन्द ओजमय
कविता के घूँघट सरकावऽ॥

होली है|तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है| हरिवंशराय बच्चन|हिंदी कविता

प्यारे मित्रों
आप सभी को होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं,
Wishing you and your family
a very bright, colourful and joyfull Holi.
Today M going to read a beautiful poem that is  wriiten by हरिवंशराय बच्चन ,  Hope u like. 

तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...