प्रस्तुत कविता गुरुचरण सिंह जी द्वारा लिखित है ।
अत्याचार करल जेतना बड़का गुनाह बा , ओतने बडका गुनाह बा येके सहल ।
अक्सर हमनी के समाज और system में हो रहल भ्रष्टाचार के चुपचाप सहत रहेनीसन , जबना के कारण ई स्वार्थी रूपी दानव और विशाल होके लोगन के जीनगी और उनकर हक के खा जाला ।
अब समय आ गइल बा की हमनी के अपन कर्तव्य और अधिकार के समझ के समाज और देश के विकास में सहायोगी बनी सन , शिक्षा , स्वास्थ्य, रोजगार और संपत्ति चंद लोगन के बापउती नईखे ये पर सबके अधिकार बा ,
येकरा अभाव के कारण कवनो आदमी के सर्वांगीण विकास संभव नईखे ।
आज के ई कविता एक कवि के समाज के प्रति जागरूक उत्तरदायित्व का होला ओके बतावता ।
कविता का शीर्षक - घूंघट सरकावऽ
लेखक - गुरुचरण सिंह
गुनगुनात रहलऽ जिनिगी भर
अबो कवनो गीत सुनातऽ।
मंजूषा में बन्द ओजमय
कविता के घूँघट सरकावऽ॥
पड़े मर्म पर चोट, व्यक्ति
आहत होके गिर जाला
तब उठेला कलम काव्य
कागज पर तबे रचाला
देखे जब निर्बल के संग
दानव के राड़ बेसाहल
कवि तब निर्भयता से छाती
खोल खड़ा हो जाला
दानवता से त्रस्त मनुज के
व्यथा कथा बतलावऽ।
मंजूषा में बन्द................
जब अदिमी रावन के भय से
त्राहि त्राहि चिकरेला
बड़का न्याय प्रिय जोद्धा ना
भयवश जब घर से निकलेला।
मरघट के सन्नाटा में
सब मुँह जाब के सिसके लागे
पोंछे बदे लोर कवि ले के
कलम हाथ में तबे चलेला
कायरता से ग्रस्त मनुज के
तू अमृत संतान बनावऽ।
मंजूषा में................।
देखऽ अब एहिजा रक्षक
भक्षक बन उतरि गइल बा
भइल सिपाही चोर
सब घुसखोर भइल बा।
देश बची कइसे जब रजे
दुसुमन से मिल गइलन
भइल खजाना खाली इ सब
उन्हुके कइल धइल बा
बाड़ऽ काहे चूप इहाँ
आवऽ रहस्य बतलावऽ
मंजूषा...........................।
देखऽ कवनो बेटी के
ईंज्जत निलाम हो जाता
भय से और लालच से अब
बापो गुलाम हो जाता।
निर्भय हो के अत्याचारी
घुम रहल बा सगरो
जंगलराज भइल एहिजा
जिनिगी छेदाम हो जाता।
जनमन के नैराश्य मिटा
आशा के दीप जरावऽ।
मंजूषा............................॥
भला बचाई कइसे ऊ
जे खुदे लूट रहल बा
जनमन के आशा आके देखऽ
अब टूट रहल बा
क्षणिक स्वार्थ में जननेता
बैरी से मिल जाताड़न
घर के भेदी लंका ढाहे
साँचे बात कहल बा
तुलसी चंद कबीर गुप्त
भूषण बन देश बचावऽ।
मंजूषा............................॥
बहुते गीत प्रेम के गवलऽ
महराजन के हक में
बाकिर कहाँ प्रेम उमड़त बा
जनमन के रग-रग में
स्वार्थ प्रेम पर हावी होके
निर्भय बन इठलाता।
खून बहे अदिमिन के देखऽ
सत्ता खातिर जग में
स्वार्थ रहित निश्छलता से
परिपूर्ण प्रेम बरसावऽ।
मंजूषा में बन्द ओजमय
कविता के घूँघट सरकावऽ॥
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