Saturday, November 28, 2020

Mera Meet Sanichar | HindiPoetry | PoemNagari

प्रस्तुत कविता फणीश्वर नाथ रेणु जी द्वारा लिखित है।

मेरा मीत सनीचर

पद्य नहीं यह, तुकबन्दी भी नहीं, कथा सच्ची है


कविता-जैसी लगे भले ही, ठाठ गद्य का ही है ।

बहुत दिनों के बाद गया था, उन गांवों की ओर


खिल-खिल कर हंसते क्षण अब भी, जहाँ मधुर बचपन के


किन्तु वहाँ भी देखा सबकुछ अब बदला-बदला-सा


इसीलिए कुछ भारी ही मन लेकर लौट रहा था ।

लम्बी सीटी देकर गाड़ी खुलने ही वाली थी


तभी किसी ने प्लेटफार्म से लम्बी हाँक लगाई,


‘अरे फनीसरा !’ सुनकर मेरी जान निकल आई थी,


और उधर बाहर पुकारनेवाला लपक पड़ा था


चलती गाड़ी का हत्था धर झटपट लटक गया था


हाँक लगाता लेकर मेरा नाम पुनः चिल्लाया —


‘अरे फनीसरा, अब क्यों तू हम सबको पहचानेगा !’

गिर ही पड़ता, अगर हाथ धर उसे न लेता खींच ।


अन्दर आया, तब मैंने उसकी सूरत पहचानी ।


‘अरे सनीचरा!’ कहकर मैं सहसा ही किलक पड़ा था ।


बचपन का वह यार हमारा ज़रा नहीं बदला था —


मोटी अकल-सकल-सूरत, भोंपे-सी बोली उसकी,


तनिक और मोटी, भोण्डी, कर्कश-सी मुझे लगी थी ।

पढ़ने-लिखने में विद्यालय का अव्वल भुसगोल


सब दिन खाकर मार बिगड़ता चेहरे का भूगोल


वही सनिचरा ? किन्तु तभी मेरे मुँह से निकला था —


“कुशल-क्षेम सब कहो, सनिचर भाई तुम कैसे हो ?”


बोला था वह लगा ठहाका- “हमरी क्या पूछो हो ?


हम बूढ़े हो चले दोस्त, तुम जैसे के तैसे हो !”

बात लोककर अपनी बात सुनाने का वह रोग


नहीं गया उसका अब भी, मैंने अचरज से देखा


मुझे देखकर इतना खुश तो कोई नहीं हुआ था !


मौक़ा मिलते ही उसने बातों की डोरी पकड़ी


अब फिर कौन भला उसकी गाड़ी को रोक सकेगा ?


“सुना बहुत पोथी-पत्तर लिख करके हुए बड़े हो,


नाम तुम्हारा फिलिम देखने वाले भी लेते हैं


और गाँव की रायबरेली(लाइब्रेरी) में किताब आई है


मेला चल(मैला आँचल) क्या है? यह तुमरी ही लिखी हुई है ?

तुम न अगर लिखते तो लिखता ऐसा था फिर कौन ?


बोर्डिंग से हर रात भागकर मेला देखा करता था


इसीलिए अब सबको, मेला चलने को कहते हो


मैंने समझा ठीक, काम यह तुम ही कर सकते हो ।


अरे, याद है वह नाटक जिसमें तुम कृशन बने थे


दुर्योधन के मृत सैनिक का पाट मुझे करना था


ऐन समय पर पाट भूल उठ पड़ा और बोला था —


नहीं रहेंगे हम कौरव संग, ले लो अपना पाट,


सभी मुझे जीते-जी ले जाएँगे मुर्दा-घाट


आँख मूँद सह ले अब ऐसा मुरख नहीं सनिचरा


कौरव दल में मुझे ठेल, अपने बन गया फनिसरा

किशुन कन्हैया चाकर सुदरसनधारी सीरी भगवान


रक्खो अपना नाटक थेटर हम धरते हैं कान


जीते-जी हम नहीं करेंगे यह मुर्दे का काम


और तभी दुरनाचारज ने फेंका ताम खड़ाम


बाल-बाल बचकर मैंने उसको ललकारा था —


मास्टर साहब, क्लास नहीं यह नाटक का स्टेज


यहाँ मरा सैनिक भी उठ तलवार चला सकता है


असल शिष्य से गुरु को अब तक पाला नहीं पड़ा था


याद तुम्हें होगा ही आखिर पट्टाछेप हुआ था !”

“खूब याद है!”— मैं बोला— “वह घटना नाटक वाली


लिखकर मैंने ब्राडकास्ट कर पैसे प्राप्त किए हैं


उस दिन अन्दर हंसते-हंसते, हम सब थे बेहाल


दर्शक समझ रहे थे लेकिन, देखो किया कमाल


पाट नया कैसा रचकर के डटकर खेल रहा है


भीतर से इसका ज़रूर पाण्डव से मेल रहा है.”


मैंने कहा — “आज भी जी भरकर मन में हँसता हूँ


आती है जब याद तुम्हारी, याद बहुत आती है !”

वह बोला —“चस्का नाटक का अब भी लगा हुआ है


जहाँ कहीं हो रहा डरामा, वहीं दौड़ जाता हूँ


लेकिन भाई कहाँ बात वह, अपना हाय ज़माना !


पाट द्रोपदी का करती है अब तो खूद ज़नाना !”


नाटक से फिर बात दीन-दुनिया की ओर मुड़ी तो


उसके मुखड़े पर छन-भर मायूसी फैल गई थी


लम्बी सांस छोड़ बोला था, “सब फाँकी है, यार


सभी चीज़ में यहाँ मिलावट खाँटी कहीं नहीं है


कुछ भी नहीं पियोर प्यार भी खोटा ही चलता है


गांवों में भी अब बिलायती मुर्गी बोल रही है !”

मैंने पूछा —“खेती-बारी या करते हो धन्धा ?


बही-रजिस्टर कागज़-पत्तर लेकर के झोली में


कहाँ चले हो यार सनीचर ? यह पहले बतलाओ !”


“खेती-बारी कहाँ कर सका” वह उदास हो बोला —


“मिडिल फेल हूँ, मगर लाज पढुआ की तो रखनी थी


अपना था वह दोस्त पुराना फुटबॉलर जोगिन्दर


नामी ठेकेदार हो गया है अब बड़ा धुरन्धर


काम उसी ने दिया, काम क्या समझो, बस, आराम


सुबह-शाम सब मजदूरों के ले-लेकर के नाम


भरता हूँ हाजिरी बही ‘हाज़िर बाबू’ सुन करके


इसीलिए सब मुझे हाजिरी बाबू ही कहते हैं ।

भले भाग से मिले दोस्त तो एक अरज करता हूँ


सुना सनीमा नाटक थेटर वाले मित्र तुम्हारे


बहुत बने हैं बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता में


अगर किसी से कहकर कोई पाट दिला दो एक बार भी !”


तभी अचानक गडगड करती गाड़ी पुल पर दौड़ी


“छूट गया कुरसेला टीशन, पीछे ही !” वह चौका,


“अच्छा कोई बात नहीं ‘थट्टी डाउन’ धर लेंगे


ऐन हाजिरी के टाइम पर साईट पर पहुँचेंगे


कहा-सुना सब माफ करोगे, लेकिन याद रखोगे


बचपन के सब मित्र तुम्हारे, सदा याद करते हैं


गाँव छोड़कर चले गए हो शहर, मगर अब भी तुम


सचमुच गंवई हो, सहरी तो नहीं हुए हो !

इससे बढ़कर और भला क्या हो सकती है बात


अब भी मन में बसा हुआ है इन गाँवों का प्यार !”


इससे आगे एक शब्द भी नहीं सका था बोल


गला भर गया, दोनों आँखें डब-डब भर आईं थीं


मेरा भी था वही हाल, मुश्किल से बोल सका था


“ज़ल्दी ही आऊंगा फिर” पर आँखें बरस पड़ी थीं ।


पद्य नहीं यह, तुकबन्दी भी नहीं, किन्तु जो भी हो


दर्द नहीं झूठा जो अब तक मन में पाल रहा हूँ ।

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