Monday, August 30, 2021

यह बनारस है || हिंदी कविता || अष्टभुजा शुक्ल ||Recited By Kishor || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अष्टभुजा शुक्ल द्वारा लिखित है ।



सभ्यता का जल यहीं से जाता है 

सभ्यता की राख यहीं आती है 

लेकिन यहाँ से सभ्यता की कोई हवा नहीं बहती 

न ही यहाँ सभ्यता की कोई हवा आती है 

यह बनारस है 

चाहे सारनाथ की ओर से आओ या लहरतारा की ओर से 

वरुणा की ओर से आओ या गंगा की ओर से 

इलाहाबाद की ओर से आओ या मुग़लसराय की ओर से 

डमरू वाले की सौगंध 

यह बनारस यहीं और इसी तरह मिलेगा 

ठगों से ठगड़ी में 

संतों से सधुक्कड़ी में 

लोहे से पानी में 

अँग्रेज़ों से अँग्रेज़ी में 

पंडितों से संस्कृत में 

बौद्धों से पालि में 

पंडों से पंडई और गुंडों से गुंडई में 

और निवासियों से भोजपुरी में 

बतियाता हुआ यह बहुभाषाभाषी बनारस है 

गुरु से संबोधन करके 

किसी गाली पर ले जाकर पटकने वाले 

बनारस में सब सबके गुरु हैं 

रिक्शेवाला गुरु है 

पानवाला गुरु है 

पंडे, मल्लाह, मुल्ला, माली और डोम गुरु हैं 

नाई गुरु है, क़साई गुरु है, भाई गुरु है 

कॉमरेड गुरु हैं 

शिष्य गुरु हैं और गुरु तो गुरु हैं ही 

लेकिन गुरु के बारे में सबके अनुभव अलग-अलग हैं 

किसी के लेखे गंगा ही गुरु हैं 

किसी के लेखे ज्ञान ही गुरु है 

किसी के लेखे स्त्री गुरु है 

किसी के लिए सीढ़ी ही गुरु है 

जबकि किसी के लिए ठेस ही गुरु है 

बनारस में 

बनारसी बाघ हैं 

बनारसी माघ हैं 

बनारसी घाघ हैं 

बनारसी जगन्नाथ हैं 

शैव हैं, वैष्णव हैं, सिद्ध हैं, बौद्ध कबीरपंथी, नाथ हैं 

जगह-जगह लगती हैं यहाँ लोक-अदालतें 

कहने को तो कचहरी भी है बनारस में 

लेकिन यहाँ सबकी गवाह गंगा 

और न्यायाधीश विश्वनाथ हैं 

धन से धर्म नहीं होता बनारस में, 

धर्म से धन होता है 

जब बनारसी देवी रोती है 

तब बनारसी दास सोता है 

किसी को जोगी, किसी को जती 

किसी को मल्लाह, किसी को पंडा 

किसी को कवि, किसी को भाँड़ 

किसी को भँगेड़ी-गँजेड़ी, किसी को साँड़ 

बना देता है बनारस 

शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा... सिद्धिदात्री 

आदि नवदुर्गा, भैरव, संकटमोचन आदि 

बज्रहृदय पत्थर के देवी-देवता खड़े हैं 

ताकते हैं टुकुर-टुकुर 

गंगा भी खड़ी हैं यहाँ 

पानी की प्रतिमा बनी है बनारस में 

बनारस में 

फूल—बिकते हैं 

मालाएँ—बिकती हैं 

चंदन—बिकता है 

प्रसाद—बिकता है 

देह—बिकती है 

साहित्य—बिकता है 

सुख नहीं बिकता बनारस में 

फिर भी सुख प्राप्त होता है 

रात का कालिख धोकर सूर्य 

प्रतिदिन बनारस के मुँह में चंदन लगा देता है 

इस तरह बनारस 

अपना अंडा अपने माथे पर सेता है 

बनारस गलियों में जीता है 

और घाटों पर मुक्ति लेता है 

इस तरह विश्व को 

जीवन की सीख देता है 

बनारस में 

मल्ल हैं, अखाड़े हैं, मठ हैं, आश्रम हैं 

व्यायाम, प्राणायाम हैं 

यहाँ सबका बदन गीला है 

लेकिन जाने क्यों 

हर आदमी थोड़ा-थोड़ा ढीला है 

किसी बनारसी को परिचय-पत्र की ज़रूरत नहीं होती 

लगता है समूचा बनारस 

गंगा की केवल एक बूँद से बना है 

मूल है गंगा, बनारस तना है 

जो भी बनारस जाता है 

कोई सिर के बाल, कोई जेब, कोई मन, कोई तन 

अर्थात् कुछ न कुछ खोकर आता है 

और जब कोई यहाँ से जाता है 

हरी झंडी की तरह 

बनारस अपने दोनों हाथ हिलाता है। 

Tuesday, August 24, 2021

अविवाहित मां बेटे को समाज के भय से नदी में बहा देती है वहीं मां आज भीख मांग रही है क्यों?|रश्मिरथी|पंचम सर्ग|कर्ण-कुंति संवाद

Part-16
पंचम सर्ग
प्यारे दोस्तों आज हम लोग पंचम सर्ग में कुंती कर्ण संवाद को सुनेगे, 

"हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ?

मेरे निमित्त आदेश कौन लायी हैं ?

यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थल है,

अस्तमित हुआ चाहता विभामण्डल है।


"सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी,

उस पर भी प्रवया आप अकेली नारी।

हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ?

क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?


सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा,

भीतर का क्लेश अपार अश्रु बन फूटा।

विगलित हो उसने कहा काँपते स्वर से,

"रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।


"राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,

जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।

तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,

अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।


"जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया,

तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया।

पा तुझे धन्य थी हुई गोद यह मेरी,

मैं ही अभागिनी पृथा जननि हूँ तेरी।


"पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था,

अनमोल लाल मैंने असमय पाया था।

अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से,

भागना पड़ा मुझको समाज के भय से


"बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी,

अबला होती, सममुच, योषिता कुमारी।

है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,

सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।


"उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का,

सूझा न शोध मुझको कुछ और पतन का।

मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,

धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।


"संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,

उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसाला।

ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,

अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।


"पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,

आदेश नहीं, प्रार्थना साथ लायी हूँ।

कल कुरूक्षेत्र में जो संग्राम छिड़ेगा,

क्षत्रिय-समाज पर कल जो प्रलय घिरेगा।


"उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू,

मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू।

मेरे ही सुत मेरे सुत को  मारें;

हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।


"यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा,

अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।

जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को,

बतला दूँगी वह व्यथा समग्र भुवन को।


भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से,

फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,

उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी,

डर चुकी बहुत, अब और न अधिक डरूँगी।


"थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ,

मरने के पहले तुँझे अंक में भर लूँ।

वह समय आज रण के मिस से आया है,

अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !


बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही,

लेकिन, विरंचि निकला कितना निर्मोही !

तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,

यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।


"पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,

यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,

अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,

आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू।


"जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,

रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको ?

पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है

अग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।


"नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,

अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,

संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।

जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी।


"यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है,

रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।

विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?

किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ ?


"वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,

देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,

जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,

तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।"


रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,

इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,

"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,

माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"


यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,

हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।

मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,

वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।


डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,

कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।

राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,

"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,

माता के तन का मल, अपूत है वह तो।

तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,

अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो।


"मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ

सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।

ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?

मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?


"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ

मत छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।

हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,

किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।


"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,

धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;

माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,

पय-पान कराती उर से लगा कर।


"मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,

दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।

पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,

पय का पहला आहार न दे पायीं तुम।


"उल्टे", मुझको असहाय छोड़ कर जल में,

तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।

मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,

रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ?


"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?

जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।

पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,

असली माता के पास भाग्य ने भेजा।


"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,

आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,

तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,

आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।


"अपना खोया संसार न तुम पाओगी,

राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।

छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,

पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?


"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,

तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।

तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,

उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।


"उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,

तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।

पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,

कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।


"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,

उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।

अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?

माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?


"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,

ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।

जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,

चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।


"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,

या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !

पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,

मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,


"अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,

भुजबल को मैंने सदा भाग्य कर जाना।

बाधाओं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर,

पाया सब-कुछ मैंने पौरूष को पाकर।


"जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी,

आया बनकर कंगाल, कहाया दानी।

दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे,

सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।


"पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ?

मुझ वीर पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ?

जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से,

सम्बन्ध तोड़ भगी दुधमुँहे तनय से।


"मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही,

जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही।

क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा,

पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा।


"था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में,

देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ?

शायद यह छोटी बात-राजसुख पाओ,

वर किसी भूप को तुम रानी कहलाओ।


"सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में,

कहलाओ साध्वी, सती वाम भूतल में।

पाओ सुत भी बलवान, पवित्र, प्रतापी,

मुझ सा अघजन्मा नहीं, मलिन, परितापी।


"सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,

कुछ भी न गँवाया तुमने मुझे गँवा कर।

पर अम्बर पर जिनका प्रदीप जलता है,

जिनके अधीन संसार निखिल चलता है


"उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा,

कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा होगा।

धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना,

माँ का हो वज्र-कठोर दृश्य वह सहना।


"फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में,

जातक असंग का जलना अमित दुखों में।

हम दोनों जब मर कर वापस जायेंगे,

ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयेंगे।


"जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर,

नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर-

अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में,

हम भली-भाँति रक्षित हैं पटावरण में !


"पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी,

देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी।

सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है,

सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है।


"यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो,

कालिमा लगी हो, उसमें कोई मल हो,

तो रह जाता क्या मूल्य हमारी जय का,

जग में संचित कलुषित समृद्धि-समुदय का ?


"पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे,

तुम देख नहीं पायीं जीवन के आगे।

देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को,

देखा केवल अपने क्षण-भंगुर सुख को।


"विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको,

गोदी में नन्हाँ दान मिला जब तुमको,

क्यो नहीं वीर-माता बन आगें आयीं ?

सबके समक्ष निर्भय होकर चिल्लायीं ?


"सुन लो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी,

सुतवती हो गयी मैं अनब्याही नारी।

अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में

या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में।


"पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी,

मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँगी।

यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फल है,

जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्बल है।’


"सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता,

कुत्सा, कलंक के सिवा और क्या लेता ?

उड़ जाती रज-सी ग्लानि वायु में खुल कर,

तुम हो जातीं परिपूत अनल में घुल कर।


"शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,

शायद, घिरते दुख के कराल घन तुम पर।

शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,

शायद, चल देना पड़ता तुम्हें भवन से।


"पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,

जग के समक्ष निर्भिक खड़ी रहतीं तुम।

पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,

था किया प्रेम तो बढ़ कर मोल चुकातीं।


"भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में,

पालतीं खड़ी हो मुझे कहीं तरू-तल में।

लूटतीं जगत् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,

सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।


"मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये,

मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।

पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरूष अवतारी,

यदि उसे मिली होती शुचि गोद तुम्हारी ?


"पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,

गत पर विलाप करना जीवन खोना है।

जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँगा ?

लौटूँगा कितनी दूर ? कहाँ जाऊँगा ?


"छीना था जो सौभाग्य निदारूण होकर,

देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।

गंगा का जल हो चुका, परन्तु, गरल है

लेना-देना उसका अब, नहीं सरल है।


"खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में,

क्यों उसे खोलती हो अब चौथेपन में ?

आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो,

बाकी परिभव भी मुझको ही सहने दो।


"पय से वंचित, गोदी से निष्कासित कर,

परिवार, गोत्र, कुल सबसे निर्वासित कर,

फेंका तुमने मुझ भाग्यहीन को जैसे,

रहने तो त्यक्त, विषण्ण आज भी वैसे।


"है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,

मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का।

दी बिता आयु सारी कुलहीन कहा कर,

क्या पाऊँगा अब उसे आज अपना कर ?


"यद्यपि जीवन की कथा कलंकमयी है,

मेरे समीप लेकिन, वह नहीं नयी है

जो कुछ तुमने है कहा बड़े ही दुख से,

सुन उसे चुका हूँ मैं केशव के मुख से।


"जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है,

जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है।

अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा,

सौभाग्य किन्तु, जग पड़ा अचानक मेरा।


"मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है,

असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है।

जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कुलजन से,

फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।


"सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है,

हिल उठा सोच परिणाम तुम्हारा मन है।

अंक मे न तुम मुझको भरने आयी हो,

कुरूपति को कुछ दुर्बल करने आयी हो।


"अन्यथा, स्नेह की वेगमयी यह धारा,

तट को मरोड़, झकझोर, तोड़ कर कारा,

भुज बढ़ा खींचने मुझे न क्यों आयी थी ?

पहले क्यों यह वरदान नहीं लायी थी ?


"केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना,

इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना !

ले गये माँग कर, जनक कवच-कुण्डल को,

जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-बल को।


"लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ,

जैसे भी हो, सुत का सौभाग्य मनाओ,

दें छोड़़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को,

मैं नहीं छोड़ने वाला दुर्योधन को।


"कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,

आसान न होना उससे कभी उऋण है।

छल किया अगर, तो क्या जग मंे यश लूँगा ?

प्राण ही नहीं, तो उसे और क्या दूँगा ?


"हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ,

मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ।

अर्पित प्रसून के लिए न यों ललचाओ,

पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ाओ।"


राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के,

आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के।

कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हिलती थी,

कहने को कोई बात नहीं मिलती थी।


अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर,

अंजन उँड़ेल सारे जग को नहला कर,

साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे,

थी घूम रही तिमिरांचल निशा पसारे।


थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था,

कुंजों में अब बोलता न कोई खग था,

झिल्ली अपना स्वर कभी-कभी भरती थी,

जल में जब-तब मछली छप-छप करती थी।


इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,

थे खड़े शिलावत् मूक, भाग्य के मारे।

था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,

क्यों उबल पड़ा असमय विष कुटिल वचन में ?


क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी,

कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।

आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,

"आयी न वेदी पर का मैं फूल उठाने।


"पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को,

थी खोज रही मैं तो अपने ही तन को।

पर, समझ गयी, वह मुझको नहीं मिलेगा,

बिछुड़ी डाली पर कुसुम न आन खिलेगा।


"तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ?

दूँगी आगे क्या भला और उत्तर मैं ?

जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,

मेटूँगी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?


बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,

मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।

मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटिल, हत्यारी,

धरती पर होगी कौन दूसरी नारी ?


"तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,

मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।

यश ओढ़ जगत् को तो छलती आयी हूँ

पर, सदा हृदय-तल में जलती आयी हूँ।


"अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा,

त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा,

पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको

टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।


"वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा,

औ’ शिलाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,

ये दोनों ही सालते रहे हैं मुझको,

रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?


"लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,

निर्घोष सत्य का कब कोमल होता है !

धिक्कार नहीं तो मैं क्या और सुनुँगी ?

काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँगी ?


"धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही,

लेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।

थे अमीत बार अरमान हृदय में जागे,

धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आगे।


"पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर,

सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।

लेकिन, जब कुरूकुल पर विनाश छाया है,

आखिरी घड़ी ले प्रलय निकट आया है।


"तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,

आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।

सोचा कि आज भी अगर चूक जाऊँगी,

भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।


"इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,

सब कुछ सहने के लिए समुद्यत होकर,

आयी थी मैं गोपन रहस्य बतलाने,

सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।


"सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,

तेरे तन में किस कुल का दिव्य लहू है।

अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,

जा भूल द्वेष अथवा अनुजों से लड़ तू।


"कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में,

हाँ, एक ललक रह गयी छिन्न जीवन में,

थे मिले लाल छह-छह पर, वाम विधाता,

रह गयी सदा पाँच ही सुतों की माता।


"अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी,

पर, आस नहीं अपने बल की लायी थी।

था एक भरोसा यही कि तू दानी है,

अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।


"थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली,

लौटता न कोई कभी द्वार से खाली।

पर, मैं अभागिनी ही अंचल फैला कर,

जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।


"फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,

संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।

अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर लूँ,

आखिरी बार तेरा आलिंगन कर लूँ।


"ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में,

जो क्षरी फूट कर सूख गया था तन में,

वह लहर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,

वह रहा हृदय के कूल-किनारे भर कर।


"कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी-

वह दीन, हीन, असहाय, ग्लानि की मारी !

सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,

तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।

"इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को,

मुझमें भुज खोले हुए दग्ध रमणी को,

छाती से सुत को लगा तनिक रोने दे,

जीवन में पहली बार धन्य होने दे।"


माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया,

हो उठी कण्टकित पुलक कर्ण की काया।

संजीवन-सी छू गयी चीज कुछ तन में,

बह चला स्निग्ध प्रस्वण कहीं से मन में।



पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,

भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।

फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,

"मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।


पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,

माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।

अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,

पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।


"की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,

जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?

लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,

बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।


‘केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,

सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।

छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,

यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।


"विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,

बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।

कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,

अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।


"आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,

रण में खुलकर मारने और मरने की।

इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,

जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।


"अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?

क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?

मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?

सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।


"तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,

पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?

दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,

पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?


"मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,

बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।

छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,

तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?


"पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,

पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।

अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,

पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।"


कुन्ती बोली, "रे हठी, दिया क्या तू ने ?

निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?

बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,

रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।


"पाकर न एक को, और एक को खोकर,

मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।"

कह उठा कर्ण, "छह और चार को भूलो,

माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।


"जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी,

लेकिन होगी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।

रण में कट मर कर जो भी हानि सहेंगे,

पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।


"कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से,

या मिली वीरगति मुझे पार्थ के कर से,

तुम इसी तरह गोदी की धनी रहोगी,

पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहोगी।


"पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,

वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,

मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा,

जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।


"जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,

जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,

यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं

विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।


"सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,

पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?

उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँगा ?

है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा ?


"हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में,

वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,

राधेय न कुरूपति का सह-जेता होगा,

वह पुनः निःस्व दलितों का नेता होगा।


"है अभी उदय का लग्न, दृश्य सुन्दर है,

सब ओर पाण्डु-पुत्रों की कीर्ति प्रखर है।

अनुकूल ज्योति की घड़ी न मेरी होगी,

मैं आऊँगा जब रात अन्धेरी होगी।


"यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं लेने को,

आऊँगा कुल को अभयदान देने को।

परिभव, प्रदाह, भ्रम, भय हरने आऊँगा,

दुख में अनुजों को भुज भरने आऊँगा।


"भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर,

बाँटने दुःख आऊँगा हृदय लगाकर।

तम में नवीन आभा भरने आऊँगा,

किस्मत को फिर ताजा करने आऊँगा।


"पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है,

रक्षिका स्वयं अच्युत की बाँह जहाँ है,

उस भाग्यवान का भाग्य क्षार क्यों होगा ?

सामने किसी दिन अन्धकार क्यों होगा ?


"मैं देख रहा हूँ कुरूक्षेत्र के रण को,
नाचते हुए, मनुजो पर, महामरण को।
शोणित से सारी मही, क्लिन्न, लथपथ है,
जा रहा किन्तु, निर्बाध पार्थ का रथ है।

"हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा,
अर्जुन के हित बह रही उलट कर धारा।
शत पाश व्यर्थ रिपु का दल फैलाता है,
वह जाल तोड़ कर हर बार निकल जाता है।

"मैं देख रहा हूँ जननि ! कि कल क्या होगा,
इस महासमर का अन्तिम फल क्या होगा ?
लेकिन, तब भी मन तनिक न घबराता है,
उत्साह और दुगुना बढ़ता जाता है।

"बज चुका काल का पटह, भयानक क्षण है,
दे रहा निमन्त्रण सबको महामरण है।
छाती के पूरे पुरूष प्रलय झेलेंगे,
झंझा की उलझी लटें खींच खेलेंगे।

"कुछ भी न बचेगा शेष अन्त में जाकर,
विजयी होगा सन्तुष्ट तत्व क्या पाकर ?
कौरव विलीन जिस पथ पर हो जायेंगे,
पाण्डव क्या उससे भिन्न राह पायेंगे ?

"है एक पन्थ कोई जीत या हारे,
खुद मरे, या कि, बढ़कर दुश्मन को मारे।
एक ही देश दोनों को जाना होगा,
बचने का कोई नहीं बहाना होगा।

"निस्सार द्रोह की क्रिया, व्यर्थ यह रण है,
खोखला हमारा और पार्थ का प्रण है।
फिर भी जानें किसलिए न हम रूकते हैं
चाहता जिधर को काल, उधर को झुकतें हैं।

"जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है,
कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है।
बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर,
सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।

"फिर लहर, धार, बुद्बुद् की नहीं निशानी,
सबकी रह जाती केवल एक कहानी।
सब मिल हो जाते विलय एक ही जल में,
मूर्तियाँ पिघल मिल जातीं धातु तरल में।

"सो इसी पुण्य-भू कुरूक्षेत्र में कल से,
लहरें हो एकाकार मिलेंगी जल से।
मूर्तियाँ खूब आपस में टकरायेंगी,
तारल्य-बीच फिर गलकर खो जायेंगी।

"आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे,
पर, काल बली के लिए सभी हैं छोटे,
छोटे होकर कल से सब साथ मरेंगे,
शत्रुता न जानें कहाँ समेट धरेंगे ?

"लेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो,
जैसा भी हो, कल कल का प्रभाव आने दो
दीखती किसी भी तरफ न उजियाली है,
सत्य ही, आज की रात बड़ी काली है।

"चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं,
किरणों के अन्वेषी जब अकुलाते हैं,
तब धूमकेतु, बस, इसी तरह आता है,
रोशनी जरा मरघट में फैलाता है।"

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर,
दो बिन्दू अश्रु के गिर दृगों से चूकर।
बेटे का मस्तक सूँघ, बड़े ही दुख से,
कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।


आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
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Sunday, August 22, 2021

संपूर्ण औरत||इमरोज़||हिंदी कविता ||PoemNagari

प्रस्तुत कविता इमरोज़ द्वारा लिखित है।

संपूर्ण औरत
इमरोज़
अनुवाद : अमिया कुँवर


चलते-चलते एक दिन 

पूछा था अमृता ने— 

तुमने कभी वुमैन विद माइंड 

पेंट की है? 

चलते-चलते मैं रुक गया 

अपने भीतर देखा, अपने बाहर देखा 

जवाब कहीं नहीं था 

चारों ओर देखा— 

हर दिशा की ओर देखा और किया इंतज़ार 

पर न कोई आवाज़ आई, न कहीं से प्रति-उत्तर 

जवाब तलाशते-तलाशते 

चल पड़ा और पहुँच गया— 

पेंटिंग के क्लासिक काल में 

अमृता के सवाल वाली औरत 

औरत के अंदर की सोच 

सोच के रंग 

न किसी पेंटिंग के रंगों में दिखे 

न ही किसी आर्ट ग्रंथ में मुझे नज़र आए 

उस औरत का, उसकी सोच का ज़िक्र तलाशा 

हाँ, 

हैरानी हुई देख-देखकर 

किसी चित्रकार ने औरत को जिस्म से अधिक 

न सोचा लगता था, न पेंट किया था 

संपूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढ़कर होती है 

सोया जा सकता है और जिस्म के साथ 

पर सिर्फ़ जिस्म के साथ जागा नहीं जा सकता 

अगर कभी चित्रकारों ने पूर्ण औरत के साथ जागकर 

देख लिया होता 
और की और हो गई होती चित्रकला—अब तलक 

मॉडर्न आर्ट में तो कुछ भी साबुत नहीं रहा— 

न औरत, न मर्द और न ही कोई सोच... 

गर कभी मर्द ने भी औरत के साथ जागकर देख लिया 

होता, 

बदल गई होती ज़िंदगी हो गई होती जीने योग्य ज़िंदगी 

उसकी और उसकी पीढ़ी की भी... 

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी||अमृता प्रीतम||Hindi Poetry||PoemNagari||Amrita Pritam Best Poetry forever

अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।

अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविताकहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित।

१९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।


प्रस्तुत कविता अमृता प्रीतम जी द्वारा लिखित है ।

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी

अमृता प्रीतम

अनुवाद : अमिया कुँवर


मैं तुम्हें फिर मिलूँगी 


कहाँ? किस तरह? नहीं जानती 


शायद तुम्हारे तख़्ईल की चिंगारी बन कर 


तुम्हारी कैनवस पर उतरूँगी 


या शायद तुम्हारी कैनवस के ऊपर 


एक रहस्यमय रेखा बन कर 


ख़ामोश तुम्हें देखती रहूँगी 


या शायद सूरज की किरन बन कर 


तुम्हारे रंगों में घुलूँगी 


या रंगों की बाँहों में बैठ कर 


तुम्हारे कैनवस को 


पता नहीं कैसे-कहाँ? 


पर तुम्हें ज़रूर मिलूँगी 


या शायद एक चश्मा बनी होऊँगी 


और जैसे झरनों का पानी उड़ता है 


मैं पानी की बूँदें 


तुम्हारे जिस्म पर मलूँगी 


और एक ठंडक-सी बन कर 


तुम्हारे सीने के साथ लिपटूँगी... 


मैं और कुछ नहीं जानती 


पर इतना जानती हूँ 


कि वक़्त जो भी करेगा 


इस जन्म मेरे साथ चलेगा... 


यह जिस्म होता है 


तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है 


पर चेतना के धागे 


कायनाती कणों के होते हैं 


मैं उन कणों को चुनूँगी 


धागों को लपेटूँगी 


और तुम्हें मैं फिर मिलूँगी... 


Friday, August 20, 2021

vijayee sadrsh jiyo re|Ramdhari Singh 'Dinkar'|Motivationalvideo|Best Poetry Ever|Rashmirathi|PoemNagari

प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह दिनकर जी द्वारा लिखित है ।
  

विजयी के सदृश जियो रे 


वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो


चट्टानों की छाती से दूध निकालो


है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो


पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे


योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है


चिनगी बन फूलों का पराग जलता है


सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है


ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है


अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे


गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है


भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है


है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है


वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है


तलवार प्रेम से और तेज होती है!

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये


मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये


दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है


मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे


जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है


बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे


जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है


कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है


नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है


वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे


धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है


सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है


विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है


जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा


पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!




 

Wednesday, August 11, 2021

ऐसा रहस्य जो कुंती ही जानती थी|कर्ण और कुंती में क्या संबंध थे ?|रश्मिरथी|पंचम सर्ग|कर्ण-कुंति संवाद Ep-15

पंचम सर्ग
प्यारे दोस्तों आज हम लोग पंचम सर्ग में कुंती कर्ण संवाद को सुनेगे, 

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,

निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का ।

हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,

कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी ।


कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,

रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी ।

संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,

सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा ।


जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,

परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।

कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,

नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे ।


सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,

कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में ।

'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?

सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?


'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,

सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?

सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,

अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?


दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,

पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,

बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?


'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?

समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?

हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,

है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?


गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,

धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं ।

तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?

मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?


यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,

गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी ।

तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं

सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं ।


लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?

किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?

माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है

बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।


क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?

उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?

किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,

इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'


चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,

बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।

सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,

सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर ।


उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,

सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी ।

आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,

कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी ।


दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,

थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर ।

लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,

खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे ।


राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,

था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये ।

तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,

दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था ।


मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,

हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर ।

अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,

हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले ।


या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,

हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,

अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,

मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर ।


सुत की शोभा को देख मोद में फूली,

कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली ।

भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,

वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को ।


आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,

कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,

"पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,

राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

Tuesday, August 10, 2021

आपको नींद से जगाकर होश में ला देने वाली कविता |बावन साल पुरानी आँखें |राही मासूम रज़ा

राही मासूम रज़ा (१ सितंबर, १९२५-१५ मार्च १९९२)[1] का जन्म गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गयी, लेकिन इंटरमीडियट करने के बाद वह अलीगढ़ आ गये और यहीं से एमए करने के बाद उर्दू में `तिलिस्म-ए-होशरुबा' पर पीएच.डी. की। पीएच.डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गये और अलीगढ़ के ही एक मुहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

राही मासूम रज़ा
राष्ट्रीयता
भारतीय
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने आधा गांव, दिल एक सादा कागज, ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी उपन्यास व १९६५ के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी ये सभी कृतियाँ हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य १८५७ जो बाद में हिन्दी में क्रांति कथा नाम से प्रकाशित हुआ तथा छोटी-बड़ी उर्दू नज़्में व गजलें लिखे चुके थे। आधा गाँव, नीम का पेड़, कटरा बी आर्ज़ू, टोपी शुक्ला, ओस की बूंद और सीन ७५ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।[2] पिछले कुछ वर्षों प्रसिद्धि में रहीं हिन्दी पॉप गायिका पार्वती खान का विवाह इनके पुत्र नदीम खान, हिन्दी फिल्म निर्देशक एवं सिनेमैटोग्राफर से हुआ था।

उन्होंने एक टीवी धारावाहिक महाभारत की पटकथा और संवाद लिखे।[3] टीवी धारावाहिक महाकाव्य महाभारत पर आधारित था। धारावाहिक भारत के सबसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिकों में से एक बन गया, जिसमें लगभग 86% की चोटी की टेलीविजन रेटिंग थी।



बावन साल पुरानी आँखें
राही मासूम रज़ा
अनुवाद : प्रदीप साहिल

बावन साल पुरानी आँखें 

कब तक जागें 

देखे-अनदेखे सपनों से भागें 

दश्ते-तमन्ना 

लम्हा-लम्हा 

हर लम्हा इक रेत का ज़र्रा 

हर ज़र्रा इक पूरा सहरा 

गिनते-गिनते हार गए हम 

लगता है बेकार गए हम 

देख-अनदेखे सपनों से कब तक भागें 

कब तक जागें 

बावन साल पुरानी आँखें 

सारी परियाँ 

सब्ज़ 

सुनहरी 

काली-पीली सारी परियाँ 

बूढ़ी पनकुट्टी से शायद अब भी बाहर आती होंगी 

उस आँगन में 

जिसकी रात चखी नहीं हमने जाने कब से 

लेकिन नोके-ज़ुबाँ पे शायद 

जिसका मज़ा मौजूद हो अब भी : 

हार-सिंगार से फूलों वाली एक लतर थी 

जो इक फुलसुंघी का घर थी 

घर से अक्सर ख़त आते है 

लेकिन उस फुलसुंघी के बारे में कोई कुछ नहीं लिखता 

जिनसे साथ की सोई-जागी सारी रातें 

साथ के खेले सारे दिन महका करते थे 

बेद की वो लंबी-सी कुर्सी 

जिस पर अब्बा 

सुबह की चाय से कुछ ही पहले 

बैठ के 

नीचे वाली सड़क को 

रोज़ सुनाया करते थे अपने बूढ़े क़ुर्आन की पुर-असरार आवाज़ें 

कोई हमें ये क्यों नहीं लिखता 

उस कुर्सी पर कैसी गुज़री 

वो कुर्सी अब कैसी होगी 

क्या वो अब भी बालकनी में रखी होगी 

सामने वाली सड़क पर आख़िर शोर है कैसा 

गांधी जी की टोली होगी 

या फिर शायद होली होगी 

या शायद उस रामदई सब्ज़ी वाली ने 

कुछ से ज़्यादा कम फिर सब्ज़ी तोली होगी 

यादों की गलियों में गलियाँ 

सूखे फूल 

कुँवारी कलियाँ 

साथ के खेले सारे दशहरे 

वो हमजोली दुलदुल, वो ताबूत, वो मातम 

सारे नंगे पाँव मुहर्रम 

जिनके बिन ख़ाली-ख़ाली लगता है मुझको अब हर मौसम 

जाने कितनी बार जगी है मेरे साथ यही दीवाली 

मुझसे आज जो नावाक़िफ़ है 

जिसके लिए मैं बेगाना हूँ 

लाखों-लाख, करोड़ों रौशन हाथों वाली सारी रातें 

जगमग करती 

पायल जैसी बजती-खनकती सारी रातें 

हर दीवार पे, 

हर चौखट पर 

हर आँगन में लवें लहराएँ 

रात के काले पानी में बहती नौकाएँ 

नींद का दरिया सूख चला है ये नौकाएँ डूब न जाएँ 

जब तक नींद न आए तब तक जागें 

देख-अनदेखे सपनों से भागें 

बावन साल पुरानी आँखें... 

घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर 

आज भी शायद लटकी होंगी 

बिछड़ी हुई सारी दोपहरें 

नीम तले इक जमघट होगा 

हरे-भरे क़हक़हों का जंगल 

उम्मीदों की सारी नहरें 

बिछड़ी हुई सारी दोपहरें 

अम्मा की अनपढ़ मासूम मुहब्बत 

डाँटों का ख़ुश-रंग दुपट्टा ओढ़े... 

घर के पीछे वाले पीपल की शाख़ों पर लटका होगा 

बुढ़िया के काते का जंगल 

मंगलाराय के सारे दंगल 

बचपन के वो रंग-बिरंगे सारे सावन 

खुलते-बरसते सारे बादल 

शायद उस पीपल ही में हो ‘राही’ तेरे सलीब की लकड़ी 

चलें 

उसी पीपल से पूछें 

हमने आख़िर क्या खोया है 

हमने आख़िर क्या खोया है 

इस सीमेंट के जंगल में हम खो गए शायद 

राहों की ये भूल-भूलैयाँ 

कोई राह कहीं नहीं जाती 

चलते-चलते 

जूते के तल्ले की तरह इस शहर में चेहरे भी घिसते हैं 

हर चेहरे के नीचे से इक नाश्ता-दान निकल आता है 

बासी ख़्वाबों की रोटी खा-खा कर कोई 

आख़िर कब तक जी सकता है 

ताज़ा ख़्वाब कहाँ से लाएँ 

आख़िर किस बाज़ार में जाएँ? 

कितनी दूर यहाँ से होगा 

बोलो, 

“आधा गाँव” हमारा 

चलें वहीं और 

आठ मुहर्रम की मजलिस का हलवा खाकर 

हम फिर ताज़ा-दम हो जाएँ 

और वहाँ से 

कोई सफ़र आग़ाज़ करें हम 

वहाँ से नाता टूट गया तो 

हम भी शायद 

नाश्ता-दानों के जंगल में 

चलते-चलते थक जाएँगे 

पेट के अंधे कुएँ में कूद के शायद एक दिन मर जाएँगे 

बावन साल पुरानी आँखो! 

हमको बचा लो 

बावन साल पुरानी आँखो! 

सो जाओ 

और सपने देखो, 

नए-पुराने सपने देखो... 


Sunday, August 1, 2021

यकीन मानिए इसका कोई जवाब नहीं : हिंदी कविता : पाश : मैं अब विदा लेता हूं : PoemNagari

अवतार सिंह संधू (9 सितम्बर 1950 - 23 मार्च 1988), जिन्हें सब पाश के नाम से जानते हैं पंजाबी कवि और क्रांतिकारी थे।
अवतार सिंह पाश उन चंद इंकलाबी शायरो में से है, जिन्होंने अपनी छोटी सी जिन्दगी में बहुत कम लिखी क्रान्तिकारी शायरी द्वारा पंजाब में ही नहीं सम्पूर्ण भारत में एक नई अलख जगाई। जो स्थान क्रान्तिकारियों में भगत सिंह का है वही स्थान कलमकारो में पाश का है। इन्होंने गरीब मजदूर किसान के अधिकारो के लिये लेखनी चलाई, इनका मानना था बिना लड़े कुछ नहीं मिलता उन्होंने लिखा "हम लड़िगें साथी" तथा "सबसे खतरनाक होता है अपने सपनों का मर जाना" जैसे लोकप्रिय गीत लिखे। आज भी क्रान्ति की धार उनके शब्दों द्वारा तेज की जाती है।।

मैं अब विदा लेता हूँ 

मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ 

मैंने एक कविता लिखनी चाही थी 

सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं 

उस कविता में 

महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था 

ईंख की सरसराहट का ज़िक्र होना था 

उस कविता में वृक्षों से चूती ओस 

और बाल्टी में चोए दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था 

और जो भी कुछ 

मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा 

उस सबकुछ का ज़िक्र होना था 

उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कराना था 

मेरी जाँघों की मछलियों ने तैरना था 

और मेरी छाती के बालों की नर्म शाल में से 

स्निग्धता की लपटें उठनीं थीं 

उस कविता में 

तेरे लिए 

मेरे लिए 

और ज़िंदगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त 

लेकिन बहुत ही बेस्वाद है 

दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना 

और यदि मैं लिख भी लेता 

शगनों से भरी वह कविता 

तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था 

तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर 

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निःसत्व हो गई है 

जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं 

और अब हर तरह की कविता से पहले 

हथियारों से युद्ध करना ज़रूरी हो गया है 

युद्ध में 

हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है 

अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह 

और इस स्थिति में 

मेरे चुंबन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को 

धरती के आकार की उपमा देना 

या तेरी कमर के लहरने की 

समुद्र के साँस लेने से तुलना करना 

बड़ा मज़ाक-सा लगना था 

सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया 

तुम्हें 

मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़ाहिश को 

और युद्ध के समूचेपन को 

एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ 

और अब मैं विदा लेता हूँ 

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे 

कि दिन में लोहार की भट्ठी की तरह तपनेवाले 

अपने गाँव की टीले 

रात को फूलों की तरह महक उठते हैं 

और चाँदनी में पगे हुए ‘टोक’ के ढेरों पर लेटकर 

स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है 

हाँ, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि 

जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता 

याद करना बहुत ही अच्छा लगता है 

मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ 

उन सभी हसीन चीज़ों का 

जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं 

और उन आम जगहों का 

जो हमारे मिलने से हसीन हो गईं 

मैं शुक्रिया करता हूँ 

अपने सिर पर ठहर जाने वाली 

तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का 

जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में 

रास्ते पर उगे हुए रेशमी घास का 

जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था 

टींडों से उतरी कपास का 

जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया 

और हमेशा मुस्कुराकर हमारे लिए सेज बन गई 

गन्नों पर तैनात पिद्दियों का 

जिन्होंने आने-जानेवालों की भनक रखी 

जवान हुए गेहूँ की बल्लियों का 

जो हमें बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढँकती रहीं 

मैं शुक्रगुज़ार हूँ, सरसों के नन्हें फूलों का 

जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया 

तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का 

मैं आदमी हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ 

और उन सभी चीज़ों के लिए 

जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा 

मेरे पास बहुत शुक्राना है 

मैं शुक्रिया करना चाहता हूँ 

प्यार करना बहुत ही सहज है 

जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए 

ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना 

या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से 

किसी गुफ़ा में पड़ा रहकर 

ज़ख़्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे 

प्यार करना 

और लड़ सकना 

जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है 

धूप की तरह धरती पर खिल जाना 

और फिर आलिंगन में सिमट जाना 

बारूद की तरह भड़क उठना 

और चारों दिशाओं में गूँज जाना— 

जीने का यही सलीक़ा होता है 

प्यार करना और जीना उन्हें कभी न आएगा 

जिन्हें ज़िंदगी ने बनिए बना दिया 

जिस्म का रिश्ता समझ सकना— 

ख़ुशी और नफ़रत में कभी भी लकीर न खींचना— 

ज़िंदगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना— 

सहम को चीरकर मिलना और विदा होना— 

बड़ा शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त, 

मैं अब विदा लेता हूँ, 

तुम भूल जाना 

मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया 

कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया 

तेरे नक़्शों की धार बाँधने में 

कि मेरे चुंबनों ने कितना ख़ूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा 

कि मेरे आलिंगनों ने 

तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे साँचे में ढाला 

तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त, 

सिवाय इसके 

कि मुझे जीने की बहुत लोचा थी 

कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था 

मेरे भी हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त, 

मेरे भी हिस्से का जी लेना! 

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...