Sunday, December 26, 2021

महाभारत मही पर चल रहा है ||रश्मिरथी ||सप्तम सर्ग || Part-21 || रामधारी सिंह दिनकर ||PoemNagari

प्यारे मित्रों हम सभी आज से रश्मिरथी सप्तम सर्ग सुनेंगे, पीछले अंक में आपने सुना की कैसे भगवान श्री कृष्ण एकाघ्नी शस्त्र के प्रहार से अर्जुन को बचाते हैं , और आज के इस अंक में हम सुनेंगे की अब कर्ण अर्जुन से युद्ध के पहले अपनी बची हुई कौन-कौन सी  शक्तियों को जागृत एवं एकत्रित कर  आगे बढ़ रहा है -तो सुनते हैं ।


निशा बीती, गगन का रूप दमका,

किनारे पर किसी का चीर चमका।

क्षितिज के पास लाली छा रही है,

अतल से कौन ऊपर आ रही है ?

संभाले शीश पर आलोक-मंडल

दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,

किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,

शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,

खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन

कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,

दिवस की स्वामिनी आई गगन में,

उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में ।

मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,

अलग बैठा हुआ है दूर होकर,

उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ?

करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ?

मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,

कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,

प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?

सितारों के हृदय में राह खोजे ?

विभा नर को नहीं भरमायगी यह  ?

मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह ?

कभी मिलता नहीं आराम इसको,

न छेड़ो, है अनेकों काम इसको ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

मनुज ललकारता फिरता मनुज को,

मनुज ही मारता फिरता मनुज को ।

पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,

सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,

न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,

निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।

मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,

पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,

मचे घनघोर हाहाकार जग में,

भरे वैधव्य की चीत्कार जग में,

मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,

फकत, वह खोजता अपनी विजय है,

नहीं ऊपर उसे यदि पायगा वह,

पतन के गर्त में भी जायगा वह ।

पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में,

गिरे जिस रोज द्रोणाचार्य रण में,

बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक और भोले,

युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले ।

नहीं थोड़े बहुत का भेद मानो,

बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,

गलेंगे बर्फ में मन भी, नयन भी,

अँगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।

नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर,

कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,

नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,

हुआ राधेय नायक सैन्य का है ।

जगा लो वह निराशा छोड़ करके,

द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,

गरजता ज्योति-के आधार ! जय हो,

चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।

बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,

किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।

छिपे हों देवता ! अंगार जो भी,"

दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,

उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !

मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे !

पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,

विकर्तन ! आज अपना तेज-बल दो !

मही का सूर्य होना चाहता हूँ,

विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।

समय को चाहता हूँ दास करना,

अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।

भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,

हिमालय को उठाना चाहता हूँ,

समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,

धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।

ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,

हथेली पर नचाना चाहता हूँ ।

मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,

हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।

समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,

धधक कर आज जीना चाहता हूँ,

समय को बन्द करके एक क्षण में,

चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।

असंभव कल्पना साकार होगी,

पुरुष की आज जयजयकार होगी।

समर वह आज ही होगा मही पर,

न जैसा था हुआ पहले कहीं पर ।

चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;

नियति की दूतियो ! मस्तक झुका लो ।

चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,

ढलो, जिस भांति ढलने को कहूँ मैं ।

न कर छल-छद्म से आघात फूलो,

पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो ।

कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,

चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा ।

अरी, यों भागती कबतक चलोगी ?

मुझे ओ वंचिके ! कबतक छलोगी ?

चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा ?

रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा ?

अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,

हृदय की भावना निष्काम तुमसे,

चले संघर्ष आठों याम तुमसे,

करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे ।

कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?

कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरोगी ?

तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,

न संचय कर्ण का नि:शेष होगा ।

कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,

भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,

गई एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?

बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?

समर की सूरता साकार हूँ मैं,

महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।

विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,

कवच है आज तक का धर्म मेरा ।

तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम,

नई एकघ्नियां वन कर ढलो तुम,

अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;

प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ ।

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,

अरी व्रत-साधने ! आकार लो तुम ।

हमारे योग की पावन शिखाओ,

समर में आज मेरे साथ आओ ।

उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,

मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,

चलें वे भी हमारे साथ होकर,

पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर ।

हृदय से पूजनीया मान करके,

बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,

सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,

अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,

समर में तो हमारा वर्म हो वह,

सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।

सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,

उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,

विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।

स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,

अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।

मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,

नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,

बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,

समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है ।

बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,

'बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,

पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,

सभी के सामने ललकार को मन मार सहना ।

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,

धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब ।

कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?

नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह ।

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,

जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं ।

हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या ?

समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ?

मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है ?

यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा ?

जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?

करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब कुछ क्षमा है,

मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?

चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा ?

न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा ।

डिगाना धर्म क्या इस चार बित्त्तो की मही को ?

भुलाना क्या मरण के बाद वाली जिन्दगी को ?

बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !

मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,

विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !

विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;

असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।

जगी, बलिदान की पावन शिखाओ,

समर में आज कुछ करतब दिखाओ ।

नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,

धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।

मचे भूडोल प्राणों के महल में,

समर डूबे हमारे बाहु-बल में ।

गगन से वज्र की बौछार छूटे,

किरण के तार से झंकार फूटे ।

चलें अचलेश, पारावार डोले;

मरण अपनी पुरी का द्वार खोले ।

समर में ध्वंस फटने जा रहा है,

महीमंडल उलटने जा रहा है ।

अनूठा कर्ण का रण आज होगा,

जगत को काल-दर्शन आज होगा ।

प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,

वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा ।

विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,

नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा ।

गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,

जयी कुरुराज लौटेगा समर से ।

बना आनन्द उर में छा रहा है,

लहू में ज्वार उठता जा रहा है ।

हुआ रोमांच यह सारे बदन में,

उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में ।

अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,

जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?

बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,

सजाओ, शल्य ! मेरा रथ सजाओ ।

आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
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