Monday, September 20, 2021

महाभारत महासंग्राम में कर्ण के अचूक बाण से क्या आज अर्जुन बच पाएगा ? || रश्मिरथी षष्ठ सर्ग ||Part-20 || PoemNagari

प्यारे मित्रों 
आप सभी रश्मिरथी षष्ठ सर्ग सुन रहे हैं पिछले अंक में आपने सुना कि कर्ण अर्जुन को सामने आकर युद्ध करने की  खुली चुनौती देता है परंतु श्री कृष्ण अर्जुन को बचाए फिर रहे हैं क्योंकि कृष्ण जानते हैं कि यदि कर्ण एकाध्नी शस्त्र का प्रयोग यदि अर्जुन पर कर दें तो अर्जुन का मरना तय  है यह अंक षष्ठ सर्ग का आखरी अंश है इसमें हम सुनेंगे की कृष्ण कैसे अर्जुन को एकाध्नी के प्रहार से बचाते हैं -

नटनागर ने इसलिए, युक्ति का

नया योग सन्धान किया,

एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच

का हरि ने आह्वान किया।

बोले, "बेटा ! क्या देख रहा ?

हाथ से विजय जाने पर है,

अब सबका भाग्य एक तेरे

कुछ करतब दिखलाने पर है।


"यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि

कैस कराल झड़ लाती है ?

गो के समान पाण्डव-सेना

भय-विकल भागती जाती है।

तिल पर भी भूमि न कहीं खड़े

हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण-भर,

सारी रण-भू पर बरस रहे

एक ही कर्ण के बाण प्रखर।


"यदि इसी भाँति सब लोग

मृत्यु के घाट उतरते जायेंगे,

कल प्रात कौन सेना लेकर

पाण्डव संगर में आयेंगे ?

है विपद् की घड़ी,

कर्ण का निर्भय, गाढ़, प्रहार रोक।

बेटा ! जैसे भी बने, पाण्डवी

सेना का संहार रोक।"


फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत,

ज्यों उठे सिन्धु में प्रलय-ज्वार,

कूदा रण में त्यों महाघोर

गर्जन कर दानव किमाकार।

सत्य ही, असुर के आते ही

रण का वह क्रम टूटने लगा,

कौरवी अनी भयभीत हुई;

धीरज उसका छूटने लगा।


है कथा, दानवों के कर में

थे बहुत-बहुत साधन कठोर,

कुछ ऐसे भी, जिनपर, मनुष्य का

चल पाता था नहीं जोर।

उन अगम साधनों के मारे

कौरव सेना चिग्घार उठी,

ले नाम कर्ण का बार-बार,

व्याकुल कर हाहाकार उठी।


लेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत,

अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण,

मन-ही-मन था हो रहा स्वयं,

इस रण से कुछ विस्मित, विवर्ण।

बाणों से तिल-भर भी अबिद्ध,

था कहीं नहीं दानव का तन;

पर, हुआ जा रहा था वह पशु,

पल-पल कुछ और अधिक भीषण।


जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध, 

हो सकी महादानव की गति,

सारी सेना को विकल देख,

बोला कर्ण से स्वयं कुरूपति,

"क्या देख रहे हो सखे ! दस्यु

ऐसे क्या कभी मरेगा यह ?

दो घड़ी और जो देर हुई,

सबका संहार करेगा यह।


"हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का,

अचिर किसी विधि त्राण करो।

अब नहीं अन्य गति; आँख मूँद,

एकघ्नी का सन्धान करो।

अरि का मस्तक है दूर, अभी

अपनों के शीश बचाओ तो,

जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,

उसमें से हमें छुड़ाओ तो।"


सुन सहम उठा राधेय, मित्र की

ओर फेर निज चकित नयन,

झुक गया विवशता में कुरूपति का

अपराधी, कातर आनन।

मन-ही-मन बोला कर्ण, "पार्थ !

तू वय का बड़ा बली निकला,

या यह कि आज फिर एक बार,

मेरा ही भाग्य छली निकला।"


रहता आया था मुदित कर्ण

जिसका अजेय सम्बल लेकर,

था किया प्राप्त जिसको उसने,

इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर,

जिसकी करालता में जय का,

विश्वास अभय हो पलता था,

केवल अर्जुन के लिए उसे,

राधेय जुगाये चलता था।


वह काल-सर्पिणी की जिह्वा,

वह अटल मृत्यु की सगी स्वसा,

घातकता की वाहिनी, शक्ति

यम की प्रचण्ड, वह अनल-रसा,

लपलपा आग-सी एकघ्नी

तूणीर छोड़ बाहर आयी,

चाँदनी मन्द पड़ गयी, समर में

दाहक उज्जवलता छायी।


कर्ण ने भाग्य को ठोंक उसे,

आखिर दानव पर छोड़ दिया,

विह्ल हो कुरूपति को विलोक,

फिर किसी ओर मुख मोड़ लिया।

उस असुर-प्राण को बेध, दृष्टि

सबकी क्षर भर त्रासित करके,

एकघ्नी ऊपर लीन हुई,

अम्बर को उद्धभासित करके।


पा धमक, धरा धँस उछल पड़ी,

ज्यों गिरा दस्यु पर्वताकार,

"हा ! हा !" की चारों ओर मची,

पाण्डव दल में व्याकुल पुकार।

नरवीर युधिष्ठिर, नकुल, भीम

रह सके कहीं कोई न धीर,

जो जहाँ खड़े थे, लगे वहीं

करने कातर क्रन्दन गंभीर।

सारी सेना थी चीख रही,

सब लोग व्यग्र बिलखाते थे;

पर बड़ी विलक्षण बात !

हँसी नटनागर रोक न पाते थे।

टल गयी विपद् कोई सिर से,

या मिली कहीं मन-ही-मन जय,

क्या हुई बात ? क्या देख हुए

केशव इस तरह विगत-संशय ?


लेकिन समर को जीत कर,

निज वाहिनी को प्रीत कर,

वलयित गहन गुन्जार से,

पूजित परम जयकार से,

राधेग संगर से चला, मन में कहीं खोया हुआ,

जय-घोष की झंकार से आगे कहीं सोया हुआ


हारी हुई पाण्डव-समूह में हँस रहे भगवान् थे,

पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए-से प्राण थे

क्या, सत्य ही, जय के लिए केवल नहीं बल चाहिए

कुछ बुद्धि का भी घात; कुछ छल-छद्म-कौशल चाहिए


क्या भाग्य का आघात है ;!

कैसी अनोखी बात है ;?

मोती छिपे आते किसी के आँसुओं के तार में,

हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।


मगर, यह कर्ण की जीवन-कथा है,

नियति का, भाग्य का इंगित वृथा है। 

मुसीबत को नहीं जो झेल सकता,

निराशा से नहीं जो खेल सकता,

पुरूष क्या, श्रृंखला को तोड़ करके,

चले आगे नहीं जो जोर करके ?


Sunday, September 19, 2021

दिल्ली : गली मुहल्ले की वे औरतें : 1275 || अनामिका || हिंदी कविता || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अनामिका जी द्वारा लिखित है ।

दिल्ली : गली मुहल्ले की वे औरतें : 1275 
नाज़िर मियाँ की गरम पावरोटी से पूछना —
कैसे उठता है ख़मीर उजबुजाता हुआ
खुसरो के मन में
          जब वे कहते हैं अनमेलिए !

एक पुरुख और लाखों नार,
जले पुरुख देखे संसार,
ख़ूब जले और हो जाए राख,
इन तिरियों की होवे साख !
हंसती थीं पनिहारिनें :
”ये तो बुझ गई — ईंटों की भट्ठी,
और कुछ सुना दो !
पानी तो तभी मिलेगा जब हम हारेंगी ।
सूख रहा है गला ? कोई बात नहीं !
थोड़ा-सा और खेल लो !
खीर की बात कहो,
नहीं-नहीं चरखे की,
ढोलकी की, नहीं कुत्ते की !
वो तो पहेली थी, थोड़े अनमेलिए कहो ।
औरत का मान नहीं रखोगे ?
पद्मिनी का मान रखा,
देवलरानी पर मसनवी लिखी,
पनिहारनों की भी बात रखो !“

"अच्छा सुनो —
खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय,
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय !
ला, पानी पिला !"
”अच्छा लो, पानी ...
पिए बिना ही चल दिए —
पद्मिनी का नाम क्योंकर लिया !“

अब बुदबुदाते चले शून्य में खुसरो,
”वो पद्मिनी और उसका भरोसा !
मान नहीं रख पाया उसका
वो पद्मिनी और उसका भरोसा ।
उसका भरोसा जो उससे भी सुन्दर था ...
आप आए हैं तो जाऊँगी ।

खिलजी दर्पण में चेहरा देखकर लौट जाएगा ।
मोड़ लेगा घोड़े वो हिनहिनाते हुए मन के !
युद्ध में हारे-थके ज़िद्दी लुटेरे
औरत की गोद में शरण चाहते हैं
जैसे पहाड़ की तराई या लहरों में,
पर उनको याद नहीं आता —
कि स्त्री चेतन है
उसके भीतर तैर पाने की योग्यता,
उसकी तराइयों-ऊँचाइयों में
रमण करने की योग्यता
हासिल करनी होती है धीरज से, श्रम से संयम से !’

उसने यह कहा और चली गई
निश्चिन्तता के सनातन महादुर्ग में
सिंहद्वार जिसका भरोसा ...
पर खिलजी का वादा
ताश का किला निकला ।
टूट गया सब्र, वायदा टूट गया,
टूट गया हर भरोसा ...
धूँ-धूँ जली रानी,
मैं हुआ पानी-पानी !

तब से अब तक
राख ही तो बटोरता फिरता हूँ
          इधर-उधर
जैसे ख़ुद अपनी ख़ुदी को !
ख़ुद को ख़ुद ही बटोरता हूँ,
झोली में भरता हूँ ख़ुद को,
कन्धे पर रखता हूँ, चल देता हूँ,
ज़िन्दगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !

हर देहली है चटाई,
हसरत है हवा की मिठाई,
गिरकर सम्भल लेता हूँ,
ज़िन्दगी बढ़ ही रही है खरामा-खरामा !

पद्मिनी की राख उड़-उड़कर
पूछती है मुझसे — ‘कैसे हो ?’
कैसा हूँ ? क्या जाने कैसा हूँ !
वादाख़िलाफ़ी और मैं ? हाँ, मैं ही ।
ज़िम्मा तो मैंने लिया था ।
कैफ़ियत मुझको ही देनी थी —
रूप और कब्ज़ा ?

क्या कब्ज़े की चीज़ है चाँदनी !
गठरी में बन्धती है धूप क्या कभी और ख़ुशबू ?
ये कैसी सनक थी तुम्हारी,
ये कैसे बादशाहत ?
ख़ुद को जो जीत सका, बादशाह तो वो ही,
जिसको न कुछ चाहिए, बादशाह वही !

औलिया से पूछो —
क्या होती है बादशाहत !
औलिया कुतुबनुमा हैं —
जो जहाजी रास्ते भूले —
भर आँख कुतुबनुमा देखे —
कुतुबनुमा — बूझो-बुझो —

बूझो पनिहारनों, बूझो —
‘एक परिन्दा बेपाँव फिरे
सीने बीच बरछी धरे
जो कोई उससे पूछने जाए,
सबको सबकी राह दिखाए —’

पर औलिया के हुज़ूर में
प्रश्न ही हेरा जाते हैं —
जैसे हेराए थे
पद्मिनी की नाक के मोती !
उफ, पद्मिनी !
प्रेम ? हाँ, प्रेम ही था वह’

पर उसमें कब्ज़े की आहट नहीं थी —
उसको भरोसा था निस्सीमता पर
जैसे कि रानी को मुझ पर,
वो मेरी शायरी से वाकिफ़ थी
और इस वाकफ़ियत के आसरे
उसने मुझसे पर्दा करने की ज़रूरत नहीं समझी ।

मैं बुतपरस्त हो गया, पर उसी दिन —
इश्क़ का काफ़िर !
प्रेम का रस पीकर
इस देह की नस-नस
हो गई धागा
काफ़िरों के ही जनेऊ का !

शायरी ने बहुत दिया —
सात बादशाहों की सोहबत,
और शाहों के शाह, औलिया का निज़ाम,
लूट-पाट, मार-काट की कचरापट्टी में
ऊँचा अमन का मचान
          बेफ़िक्र हँसता हुआ -—
हवा से हवा को,
पानी से पानी को कैसे अलगाए कोई,
जाना ही होगा, निज़ाम पिया !
आई अभी आई !
‘बहोत रही, बाबुल घर दुल्हन !
चले ही बनेगी, हीत कहा है,
          नैनन नीर बहाई !’

Friday, September 17, 2021

किस भय से कृष्ण अर्जुन को कर्ण से दूर हटाएं हैं ?जानिए |रश्मिरथी षष्ठ सर्ग| दिनकर|Part-19|PoemNagari

प्यारे मित्रों
हम सभी रश्मिरथी षष्ठ सर्ग सुन रहे हैं, पिछले अंक में आपने सुना भीष्म करण को समझाते हैं की इस संग्राम को रोक ले दुर्योधन को समझाएं और मुझे शांति से मरने दे  ,पर कर्ण उनकी बात नहीं मानता और उनसे आशीर्वाद ले महासंग्राम में प्रलय मचाना शुरू कर देता है, उसकी विनाशकारी लीला देख कृष्ण अर्जुन को सावधान करते हैं और कहते हैं क्या तुम इससे जीत भी पाओगे अब आगे की कहानी सुनिए -

रश्मिरथी षष्ठ सर्ग Part -19 

‘यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?


‘अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"


केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।


एक ही वृम्त के दो कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।


अन्धड़ बन कर उन्माद उठा,

दोनों दिशि जयजयकार हुई।

दोनों पक्षों के वीरों पर,

मानो, भैरवी सवार हुई।

कट-कट कर गिरने लगे क्षिप्र,

रूण्डों से मुण्ड अलग होकर,

बह चली मनुज के शोणित की 

धारा पशुओं के पग धोकर।


लेकिन, था कौन, हृदय जिसका,

कुछ भी यह देख दहलता था ?

थे कौन, नरों की लाशों पर,

जो नहीं पाँव धर चलता था ?

तन्वी करूणा की झलक झीन

किसको दिखलायी पड़ती थी ?

किसको कटकर मरनेवालों की

चीख सुनायी पड़ती थी ?


केवल अलात का घूर्णि-चक्र,

केवल वज्रायुध का प्रहार,

केवल विनाशकारी नर्तन

केवल गर्जन, केवल पुकार।

है कथा, द्रोण की छाया में

यों पाँच दिनों तक युद्ध चला,

क्या कहें, धर्म पर कौन रहा,

या उसके कौन विरूद्ध चला ?


था किया भीष्म पर पाण्डव ने,

जैसे छल-छद्मों से प्रहार,

कुछ उसी तरह निष्ठुरता से

हत हुआ वीर अर्जुन-कुमार !

फिर भी, भावुक कुरूवृद्ध भीष्म,

थे युग पक्षों के लिए शरण,

कहते हैं, होकर विकल,

मृत्यु का किया उन्होंने स्वयं वरण।


अर्जुन-कुमार की कथा, किन्तु

अब तक भी हृदय हिलाती है,

सभ्यता नाम लेकर उसका 

अब भी रोती, पछताती है।

पर, हाय, युद्ध अन्तक-स्वरूप,

अन्तक-सा ही दारूण कठोर,

देखता नहीं ज्यायान्-युवा,

देखता नहीं बालक-किशोर।


सुत के वध की सुन कथा पार्थ का,

दहक उठा शोकात्र्त हृदय,

फिर किया क्रुद्ध होकर उसने,

तब महा लोम-हर्षक निश्चय,

‘कल अस्तकाल के पूर्व जयद्रथ

को न मार यदि पाऊँ मैं,

सौगन्ध धर्म की मुझे, आग में

स्वयं कूद जल जाऊँ मैं।’


तब कहते हैं अर्जुन के हित,

हो गया प्रकृति-क्रम विपर्यस्त,

माया की सहसा शाम हुई,

असमय दिनेश हो गये अस्त।

ज्यों त्यों करके इस भाँति वीर

अर्जुन का वह प्रण पूर्ण हुआ,

सिर कटा जयद्रथ का, मस्तक

निर्दोष पिता का चुर्ण हुआ।


हाँ, यह भी हुआ कि सात्यकि से,

जब निपट रहा था भूरिश्रवा,

पार्थ ने काट ली, अनाहूत,

शर से उसकी दाहिनी भुजा।

औ‘ भूरिश्रवा अनशन करके,

जब बैठ गया लेकर मुनि-व्रत,

सात्यकि ने मस्तक काट लिया,

जब था वह निश्चल, योग-निरत।


है वृथा धर्म का किसी समय,

करना विग्रह के साथ ग्रथन,

करूणा से कढ़ता धर्म विमल,

है मलिन पुत्र हिंसा का रण।

जीवन के परम ध्येय-सुख-को

सारा समाज अपनाता है,

देखना यही है कौन वहाँ

तक किस प्रकार से जाता है ?


है धर्म पहुँचना नहीं, धर्म तो

जीवन भर चलने में है।

फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति

दीपक समान जलने में है।

यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त

हो जाती परतापी को भी,

सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन;

मिल जाते है पापी को भी।


इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो

सदा निहित, साधन में है,

वह नहीं सिकी भी प्रधन-कर्म,

हिंसा, विग्रह या रण में है।

तब भी जो नर चाहते, धर्म,

समझे मनुष्य संहारों को,

गूँथना चाहते वे, फूलों के

साथ तप्त अंगारों को।


हो जिसे धर्म से प्रेम कभी

वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ?

बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर

मारेगा और मरेगा क्या ?

पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी

तक भी खोटे के खोटे हैं,

हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर

लेकिन, छोटे के छोटे हैं।


संग्राम धर्मगुण का विशेष्य

किस तरह भला हो सकता है ?

कैसे मनुष्य अंगारों से

अपना प्रदाह धो सकता है ?

सर्पिणी-उदर से जो निकला,

पीयूष नहीं दे पायेगा,

निश्छल होकर संग्राम धर्म का

साथ न कभी निभायेगा।


मानेगा यह दंष्ट्री कराल 

विषधर भुजंग किसका यन्त्रण ?

पल-पल अति को कर धर्मसिक्त

नर कभी जीत पाया है रण ?

जो ज़हर हमें बरबस उभार,

संग्राम-भूमि में लाता है,

सत्पथ से कर विचलित अधर्म

की ओर वही ले जाता है।


साधना को भूल सिद्धि पर जब

टकटकी हमारी लगती है,

फिर विजय छोड़ भावना और

कोई न हृदय में जगती है।

तब जो भी आते विघ्न रूप,

हो धर्म, शील या सदाचार,

एक ही सदृश हम करते हैं

सबके सिर पर पाद-प्रहार।


उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,

होती है इन्हें कुचलने में,

जितनी होती है रोज़ कंकड़ो

के ऊपर हो चलने में।

सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे

नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?

जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,

छोटी बातों का ध्यान करे ?


चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,

जानता नहीं, क्या करता है,

नीच पथ में है कौन ? पाँव

जिसके मस्तक पर धरता है।

काटता शत्रु को वह लेकिन,

साथ ही धर्म कट जाता है,

फाड़ता विपक्षी को अन्तर

मानवता का फट जाता है।


वासना-वह्नि से जो निकला,

कैसे हो वह संयुग कोमल ?

देखने हमें देगा वह क्यों,

करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?

जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,

माँड़ी बन कर छा जाता है

तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े

दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।


फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव

भी नहीं धर्म के साथ रहे ?

जो रंग युद्ध का है, उससे,

उनके भी अलग न हाथ रहे।

दोनों ने कालिख छुई शीश पर,

जय का तिलक लगाने को,

सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,

विजय-विन्दु तक जाने को।


इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के

दाहक कई दिवस बीते;

पर, विजय किसे मिल सकती थी,

जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?

था कौन सत्य-पथ पर डटकर,

जो उनसे योग्य समर करता ?

धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,

अपना नाम अमर करता ?

था कौन, देखकर उन्हें समर में

जिसका हृदय न कँपता था ?

मन ही मन जो निज इष्ट देव का

भय से नाम न जपता था ?

कमलों के वन को जिस प्रकार

विदलित करते मदकल कुज्जर,

थे विचर रहे पाण्डव-दल में

त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।


संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, 

सारे जीवन से छला हुआ,

राधेय पाण्डवों के ऊपर

दारूण अमर्ष से जला हुआ;

इस तरह शत्रुदल पर टूटा,

जैसे हो दावानल अजेय,

या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से

उतर मनुज पर कार्तिकेय


संघटित या कि उनचास मरूत

कर्ण के प्राण में छाये हों,

या कुपित सूर्य आकाश छोड़

नीचे भूतल पर आये हों।

अथवा रण में हो गरज रहा

धनु लिये अचल प्रालेयवान,

या महाकाल बन टूटा हो 

भू पर ऊपर से गरूत्मान।


बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,

हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,

जल उठी कर्ण के पौरूष की

कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।

दिग्गज-दराज वीरों की भी 

छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये

गजराजों के भी पाँव उखड़।


जन-जन के जीवन पर कराल,

दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,

पाण्डव-सेना का हृास देख

केशव का वदन विवर्ण हुआ।

सोचने लगे, छूटेंगे क्या

सबके विपन्न आज ही प्राण ?

सत्य ही, नहीं क्या है कोई

इस कुपित प्रलय का समाधान ?


"है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?"

राधेय गरजता था क्षण-क्षण।

"करता क्यों नही प्रकट होकर, 

अपने कराल प्रतिभट से रण ?

क्या इन्हीं मूलियों से मेरी 

रणकला निबट रह जायेगी ?

या किसी वीर पर भी अपना,

वह चमत्कार दिखलायेगी ?


"हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,

अब हाथ समेटे लेता हूँ,

सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,

मैं उसे चुनौती देता हूँ।

हिम्मत हो तो वह बढ़े,

व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,

दे मुझे जन्म का लाभ और

साहस हो तो खुद भी पाये।"


पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,

रथ अलग नचाये फिरते थे,

कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,

शिष्य को बचाये फिरते थे।

चिन्ता थी, एकघ्नी कराल,

यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,

पार्थ का निधन होगा, किस्मत,

पाण्डव-समाज की फूटेगी।

Tuesday, September 14, 2021

हिंदी दिवस पर हिंदी के बेहतरीन कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाओं से हम आपको रूबरू करा रहे हैं।

हिंदी दिवस पर हिंदी के बेहतरीन कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाओं से हम आपको रूबरू करा रहे हैं। इसी कड़ी में हिंदी के प्रसिद्ध कवियों में शुमार हरिवंशराय बच्चन, रघुवीर सहाय, पाश, भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार की कविताएं निश्चित तौर पर आपके दिलों-दिमाग पर गहरा असर करेंगी।


  हरिवंशराय बच्चन...

  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने...

  फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
  और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
  तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
  जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
  मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे

  अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
  रात आधी खींच कर मेरी हथेली
  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

  एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
  कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
  इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
  बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,

  मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
  प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
  जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
  के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

  प्रात ही की ओर को है रात चलती
  औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
  मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
  खूबियों के साथ परदे को उठाता,

  एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
  और मैंने था उतारा एक चेहरा,
  वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
  ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

  और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
  यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
  फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
  उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,

  और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
  क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं--
  बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
  रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
  रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने।

  रघुवीर सहाय...

  अरे अब ऐसी कविता लिखो
  कि जिसमें छंद घूमकर आय
  घुमड़ता जाय देह में दर्द
  कहीं पर एक बार ठहराय

  कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं
  वही दो बार शब्द बन जाय
  बताऊँ बार-बार वह अर्थ
  न भाषा अपने को दोहराय

  अरे अब ऐसी कविता लिखो
  कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
  न कोई पुलक-पुलक रह जाय
  न कोई बेमतलब अकुलाय

  छंद से जोड़ो अपना आप
  कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
  थामकर हँसना-रोना आज
  उदासी होनी की कह जाय।


  भवानी प्रसाद मिश्र...

  एडिथ सिटवेल ने
  सूरज को धरती का
  पहला प्रेमी कहा है

  धरती को सूरज के बाद
  और शायद पहले भी
  तमाम चीज़ों ने चाहा

  जाने कितनी चीज़ों ने
  उसके प्रति अपनी चाहत को
  अलग-अलग तरह से निबाहा

  कुछ तो उस पर
  वातावरण बनकर छा गए
  कुछ उसके भीतर समा गए
  कुछ आ गए उसके अंक में

  मगर एडिथ ने
  उनका नाम नहींलिया
  ठीक किया मेरी भी समझ में

  प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
  मगर प्रेम किया सबसे पहले
  उसे सूरज ने

  प्रेमी के मन में
  प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
  एक बेचैनी होती है
  एक अगन होती है
  सूरज जैसी लगन और अगन
  धरती के प्रति
  और किसी में नहीं है

  चाहते हैं सब धरती को
  अलग-अलग भाव से
  उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
  खासे घने चाव से

  मगरप्रेमी में
  एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
  देखता हूँ वह सूरज में है

  रोज़ चला आता है
  पहाड़ पार कर के
  उसके द्वारे
  और रुका रहता है
  दस-दस बारह-बारह घंटों

  मगर वह लौटा देती है उसे
  शाम तक शायद लाज के मारे

  और चला जाता है सूरज
  चुपचाप
  टाँक कर उसकी चूनरी में
  अनगिनत तारे
  इतनी सारी उपेक्षा के
  बावजूद।


  अवतार सिंह संधू 'पाश'...

  हमारे लहू को आदत है
  मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता
  ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
  सूली के गीत छेड़ लेता है

  शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं
  लहू है की तब भी गाता है
  ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?
  निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?
  लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है
  लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है
  यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं --
  जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में
  तैरने का अभ्यास करते थे ।

  दुष्यंत कुमार...

  ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
  अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

  दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
  इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

  लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
  आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

  आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
  आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

  रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
  इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

  कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
  एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

  लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
  तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

Monday, September 13, 2021

मौत से ठन गई || हिंदी कविता ||अटल बिहारी वाजपेयी || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लिखित है।

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

Wednesday, September 8, 2021

क्या कर्ण भीष्म आज्ञा पालन करेगा या फिर युद्ध ? जानने के लिए सुनिए|कर्ण-भीष्म संवाद|रश्मिरथी|षष्ठ सर्ग|Part-18|PoemNagari

प्यारे मित्रों आप सभी रश्मिरथी षष्ठ सर्ग सुन रहे हैं, पिछले अंक में आपने सुना भीष्मा बड़े प्रेम से शत्रु को अपना जीवन दान देते हैं इस अंक में हम सभी भीष्म-कर्ण संवाद सुनेंगे -


गिरि का उदग्र गौरवाधार

गिर जाय श्रृंग ज्यों महाकार,

अथवा सूना कर आसमान

ज्यों गिरे टूट रवि भासमान,

कौरव-दल का कर तेज हरण

त्यों गिरे भीष्म आलोकवरण।


कुरूकुल का दीपित ताज गिरा,

थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा,

भूलूठित पितामह को विलोक,

छा गया समर में महाशोक।

कुरूपति ही धैर्य न खोता था,

अर्जुन का मन भी रोता था।


रो-धो कर तेज नया चमका,

दूसरा सूर्य सिर पर चमका,

कौरवी तेज दुर्जेय उठा,

रण करने को राधेय उठा,

सबके रक्षक गुरू आर्य हुए,

सेना-नायक आचार्य हुए।


राधेय, किन्तु जिनके कारण,

था अब तक किये मौन धारण,

उनका शुभ आशिष पाने को,

अपना सद्धर्म निभाने को,

वह शर-शय्या की ओर चला,

पग-पग हो विनय-विभोर चला।


छू भीष्मदेव के चरण युगल,

बोला वाणी राधेय सरल,

"हे तात ! आपका प्रोत्साहन,

पा सका नहीं जो लान्छित जन,

यह वही सामने आया है,

उपहार अश्रु का लाया है।


"आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ,

रण में चलकर कुछ काम करूँ,

देखूँ, है कौन प्रलय उतरा,

जिससे डगमग हो रही धरा।

कुरूपति को विजय दिलाऊँ मैं,

या स्वयं विरगति पाऊँ मैं।


"अनुचर के दोष क्षमा करिये,

मस्तक पर वरद पाणि धरिये,

आखिरी मिलन की वेला है,

मन लगता बड़ा अकेला है।

मद-मोह त्यागने आया हूँ,

पद-धूलि माँगने आया हूँ।"

भीष्म ने खोल निज सजल नयन,

देखे कर्ण के आर्द्र लोचन

बढ़ खींच पास में ला करके,

छाती से उसे लगा करके,

बोले-"क्या तत्व विशेष बचा ?

बेटा, आँसू ही शेष बचा।


"मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण,

पर हाय, हठी यह दुर्योधन,

अंकुश विवेक का सह न सका,

मेरे कहने में रह न सका,

क्रोधान्ध, भ्रान्त, मद में विभोर,

ले ही आया संग्राम घोर।


"अब कहो, आज क्या होता है ?

किसका समाज यह रोता है ?

किसका गौरव, किसका सिंगार,

जल रहा पंक्ति के आर-पार ?

किसका वन-बाग़ उजड़ता है?

यह कौन मारता-मरता है ?


"फूटता द्रोह-दव का पावक,

हो जाता सकल समाज नरक,

सबका वैभव, सबका सुहाग,

जाती डकार यह कुटिल आग।

जब बन्धु विरोधी होते हैं,

सारे कुलवासी रोते हैं।


"इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,

मन में सोचो, यह महासमर,

किस ओर तुम्हें ले जायेगा ?

फल अलभ कौन दे पायेगा ?

मानवता ही मिट जायेगी,

फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?


"ओ मेरे प्रतिद्वन्दी मानी !

निश्छल, पवित्र, गुणमय, ज्ञानी !

मेरे मुख से सुन परूष वचन,

तुम वृथा मलिन करते थे मन।

मैं नहीं निरा अवशंसी था,

मन-ही-मन बड़ा प्रशंसी था।


"सो भी इसलिए कि दुर्योधन,

पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,

मुझको न मानकर चलता था,

पग-पग पर रूठ मचलता था।

अन्यथा पुत्र ! तुमसे बढ़कर

मैं किसे मानता वीर प्रवर ?


"पार्थोपम रथी, धनुर्धारी,

केशव-समान रणभट भारी,

धर्मज्ञ, धीर, पावन-चरित्र, 

दीनों-दलितों के विहित मित्र,

अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे,

तुम मिले कौरवों को वैसे।


"पर हाय, वीरता का सम्बल,

रह जायेगा धनु ही केवल ?

या शान्ति हेतु शीतल, शुचि श्रम,

भी कभी करेंगे वीर परम ?

ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?

या लड़कर ही मर जायेंगे ?


"चल सके सुयोधन पर यदि वश,

बेटा ! लो जग में नया सुयश,

लड़ने से बढ़ यह काम करो,

आज ही बन्द संग्राम करो।

यदि इसे रोक तुम पाओगे,

जग के त्राता कहलाओगे।


"जा कहो वीर दुर्योधन से,

कर दूर द्वेष-विष को मन से,

वह मिले पाण्डवों से जाकर,

मरने दे मुझे शान्ति पाकर।

मेरा अन्तिम बलिदान रहे,

सुख से सारी सन्तान रहे।"


"हे पुरूष सिंह !" कर्ण ने कहा,

"अब और पन्थ क्या शेष रहा ?

सकंटापन्न जीवन समान,

है बीच सिन्धु में महायान;

इस पार शान्ति, उस पार विजय

अब क्या हो भला नया निश्चय ?


"जय मिले बिना विश्राम नहीं,

इस समय सन्धि का नाम नहीं,

आशिष दीजिये, विजय कर रण,

फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;

जलयान सिन्धु से तार सकूँ;

सबको मैं पार उतार सकूँ।


"कल तक था पथ शान्ति का सुगम,

पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,

अब उसे देख ललचाना क्या ?

पीछे को पाँव हठाना क्या ?

जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,

अरि-दल को गर्व दलेंगे हम।


"हे महाभाग, कुछ दिन जीकर,

देखिये और यह महासमर,

मुझको भी प्रलय मचाना है,

कुछ खेल नया दिखलाना है;

इस क्षण तो मुख मोडि़ये नहीं;

मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं।


करने दीजिये स्वव्रत पालन,

अपने महान् प्रतिभट से रण,

अर्जुन का शीश उड़ाना है,

कुरूपति का हृदय जुड़ाना है।

करने को पिता अमर मुझको,

है बुला रहा संगर मुझको।"


गांगेय निराशा में भर कर,

बोले-"तब हे नरवीर प्रवर !

जो भला लगे, वह काम करो,

जाओ, रण में लड़ नाम करो।

भगवान् शमित विष तूर्ण करें;

अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।"


भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।


पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी, 

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।


सेना समग्र हुकांर उठी,

‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।


सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।


झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।


प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।


सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।


"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।


"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण 

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।


बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।

Sunday, September 5, 2021

कोशिश कर कर के थक गए ? तो यह जरूर सुनो ! असफलता एक चुनौती है इसे स्वीकार करो #MostPowerfulMotivation

प्रस्तुत कविता हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित है।



लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना गिरकर चढ़ना ना अखरता है

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

डुबकिया सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह हैरानी में

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
मेहनत करने वालों के कभी हार नहीं होती

असफलता एक चुनौती है इसे स्वीकार करो
क्या कमी रह गई देखो और सुधार करो

जब तक न सफल हो नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम

कुछ किए बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

Friday, September 3, 2021

रश्मिरथी || षष्ठ सर्ग || Part-17 ||कर्ण-भीष्म संवाद ||पितामह का संदेश विश्व कल्याण हेतु|| PoemNagari || रामधारी सिंह दिनकर

प्यारे मित्रों, आज हम सभी  षष्ठ सर्ग में भीष्म-कर्ण संवाद और कर्ण की युद्ध गर्जना सुनेंगे ।


नरता कहते हैं जिसे, सत्तव

क्या वह केवल लड़ने में है ?

पौरूष क्या केवल उठा खड्ग

मारने और मरने में है ?

तब उस गुण को क्या कहें

मनुज जिससे न मृत्यु से डरता है ?

लेकिन, तक भी मारता नहीं,

वह स्वंय विश्व-हित मरता है।


है वन्दनीय नर कौन ? विजय-हित

जो करता है प्राण हरण ?

या सबकी जान बचाने को

देता है जो अपना जीवन ?

चुनता आया जय-कमल आज तक

विजयी सदा कृपाणों से,

पर, आह निकलती ही आयी

हर बार मनुज के प्राणों से।


आकुल अन्तर की आह मनुज की

इस चिन्ता से भरी हुई,

इस तरह रहेगी मानवता

कब तक मनुष्य से डरी हुई ?

पाशविक वेग की लहर लहू में

कब तक धूम मचायेगी ?

कब तक मनुष्यता पशुता के

आगे यों झुकती जायेगी ?


यह ज़हर न छोड़ेगा उभार ?

अंगार न क्या बूझ पायेंगे ?

हम इसी तरह क्या हाय, सदा

पशु के पशु ही रह जायेंगे ?

किसका सिंगार ? किसकी सेवा ?

नर का ही जब कल्याण नहीं ?

किसके विकास की कथा ? जनों के

ही रक्षित जब प्राण नहीं ?


इस विस्मय का क्या समाधान ?

रह-रह कर यह क्या होता है ?

जो है अग्रणी वही सबसे

आगे बढ़ धीरज खोता है।

फिर उसकी क्रोधाकुल पुकार

सबको बेचैन बनाती है,

नीचे कर क्षीण मनुजता को

ऊपर पशुत्व को लाती है।


हाँ, नर के मन का सुधाकुण्ड

लघु है, अब भी कुछ रीता है,

वय अधिक आज तक व्यालों के

पालन-पोषण में बीता है।

ये व्याल नहीं चाहते, मनुज

भीतर का सुधाकुण्ड खोले,

जब ज़हर सभी के मुख में हो

तब वह मीठी बोली बोले। 


थोड़ी-सी भी यह सुधा मनुज का

मन शीतल कर सकती है,

बाहर की अगर नहीं, पीड़ा

भीतर की तो हर सकती है।

लेकिन धीरता किसे ? अपने

सच्चे स्वरूप का ध्यान करे,

जब ज़हर वायु में उड़ता हो

पीयूष-विन्दू का पान करे।


पाण्डव यदि पाँच ग्राम

लेकर सुख से रह सकते थे,

तो विश्व-शान्ति के लिए दुःख

कुछ और न क्या सह सकते थे ?

सुन कुटिल वचन दुर्योधन का

केशव ने क्यों यह कहा नहीं-

"हम तो आये थे शान्ति हेतु,

पर, तुम चाहो जो, वही सही।


"तुम भड़काना चाहते अनल

धरती का भाग जलाने को,

नरता के नव्य प्रसूनों को

चुन-चुन कर क्षार बनाने को।

पर, शान्ति-सुन्दरी के सुहाग

पर आग नहीं धरने दूँगा,

जब तक जीवित हूँ, तुम्हें

बान्धवों से न युद्ध करने दूँगा।


"लो सुखी रहो, सारे पाण्डव

फिर एक बार वन जायेंगे,

इस बार, माँगने को अपना

वे स्वत्तव न वापस आयेंगे।

धरती की शान्ति बचाने को

आजीवन कष्ट सहेंगे वे,

नूतन प्रकाश फैलाने को

तप में मिल निरत रहेंगे वे।


शत लक्ष मानवों के सम्मुख

दस-पाँच जनों का सुख क्या है ?

यदि शान्ति विश्व की बचती हो,

वन में बसने में दुख क्या है ?

सच है कि पाण्डूनन्दन वन में

सम्राट् नहीं कहलायेंगे,

पर, काल-ग्रन्थ में उससे भी

वे कहीं श्रेष्ठ पद पायेंगे।


"होकर कृतज्ञ आनेवाला युग

मस्तक उन्हें झुकायेगा,

नवधर्म-विधायक की प्रशस्ति

संसार युगों तक गायेगा।

सीखेगा जग, हम दलन युद्ध का

कर सकते, त्यागी होकर,

मानव-समाज का नयन मनुज

कर सकता वैरागी होकर।"


पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं

होता क्या ऐसा कहने से ?

प्रतिकार अनय का हो सकता।

क्या उसे मौन हो सहने से ?

क्या वही धर्म, लौ जिसकी

दो-एक मनों में जलती है।

या वह भी जो भावना सभी

के भीतर छिपी मचलती है।


सबकी पीड़ा के साथ व्यथा

अपने मन की जो जोड़ सके,

मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे

निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।

युगपुरूष वही सारे समाज का

विहित धर्मगुरू होता है,

सबके मन का जो अन्धकार

अपने प्रकाश से धोता है।


द्वापर की कथा बड़ी दारूण,

लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ?

नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी

कुछ और उसे आसान किया।

पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था,

वह आज निन्द्य-सा लगता है।

बस, इसी मन्दता के विकास का

भाव मनुज में जगता है।


धीमी कितनी गति है ? विकास

कितना अदृश्य हो चलता है ?

इस महावृक्ष में एक पत्र

सदियों के बाद निकलता है।

थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,

लगता है वहीं खड़े हैं हम।

है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से

कुछ बहुत बड़े हैं हम।


अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो

किटकिटा नखों से, दाँतों से,

या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित

वज्रीकृत हाथों से;

या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से

गोलों की वृष्टि करो,

आ जाय लक्ष्य में जो कोई,

निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।


ये तो साधन के भेद, किन्तु

भावों में तत्व नया क्या है ?

क्या खुली प्रेम आँख अधिक ?

भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ?

झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,

पशुता का झरना बाकी है;

बाहर-बाहर तन सँवर चुका,

मन अभी सँवरना बाकी है।


देवत्व अल्प, पशुता अथोर,

तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,

द्वापर के मन पर भी प्रसरित

थी यही, आज वाली, द्वाभा।

बस, इसी तरह, तब भी ऊपर

उठने को नर अकुलाता था,

पर पद-पद पर वासना-जाल में

उलझ-उलझ रह जाता था।


औ’ जिस प्रकार हम आज बेल-

बूटों के बीच खचित करके,

देते हैं रण को रम्य रूप 

विप्लवी उमंगों में भरके;

कहते, अनीतियों के विरूद्ध

जो युद्ध जगत में होता है,

वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का

बड़ा सलोना सोता है।


बस, इसी तरह, कहता होगा

द्वाभा-शासित द्वापर का नर,

निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,

है महामोक्ष का द्वार समर।

सत्य ही, समुन्नति के पथ पर

चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,

कहता है क्रान्ति उसे, जिसको

पहले कहता था धर्मयुद्ध।


सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग

तक जाने के सोपान लगे,

सद्गतिकामी नर-वीर खड्ग से

लिपट गँवाने प्राण लगे।

छा गया तिमिर का सघन जाल,

मुँद गये मनुज के ज्ञान-नेत्र,

द्वाभा की गिरा पुकार उठी,

"जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरूक्षेत्र !"


हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन

पर अबन्ध की जीत हुई,

कर्तव्य ज्ञान पीछे छूटा,

आगे मानव की प्रीत हुई।

प्रेमातिरेक में केशव ने

प्रण भूल चक्र सन्धान किया,

भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से

अपना जीवन दान दिया।


आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
अगले भाग की कहानी आती  ही आपको सबसे पहले पता चले, इसके लिए PoemNagari को Subscribe कर bell icon को on कर लें,
हमारा यह प्रयास आपको अच्छा लग रहा हो, तो हमारा सहयोग करें, अपने दोस्तों तक इसे पहुंचाकर।

तीनों बंदर बापू के : नागार्जून ||हिंदी कविता||PoemNagari ||Hindi Kavita||Baba Nagarjun ||Best Poetry

प्रस्तुत कविता बाबा नागार्जुन द्वारा लिखित है ,

नागार्जुन (30जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया।
    
तीनों बंदर बापू के
नागार्जुन

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के! 

सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बंदर बापू के! 

सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बंदर बापू के! 

ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के! 

जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बंदर बापू के! 

लीला के गिरधारी निकले तीनों बंदर बापू के! 

सर्वोदय के नटवरलाल 

फैला दुनिया भर में जाल 

अभी जिएँगे ये सौ साल 

ढाई घर घोड़े की चाल 

मत पूछो तुम इनका हाल 

सर्वोदय के नटवरलाल 

लंबी उमर मिली है, ख़ुश हैं तीनों बंदर बापू के 

दिल की कली खिली है, ख़ुश हैं तीनों बंदर बापू के 

बूढ़े हैं, फिर भी जवान हैं तीनों बंदर बापू के 

परम चतुर हैं, अति सुजान हैं तीनों बंदर बापू के 

सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

बापू को भी बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

बच्चे होंगे मालामाल 

ख़ूब गलेगी उनकी दाल 

औरों की टपकेगी राल 

इनकी मगर तनेगी पाल 

मत पूछो तुम इनका हाल 

सर्वोदय के नटवरलाल 

सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

सत्य अहिंसा फाँक रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

पूँछों से छवि आँक रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

दल से ऊपर, दल के नीचे तीनों बंदर बापू के 

मुस्काते हैं आँखें मीचे तीनों बंदर बापू के 

छील रहे गीता की खाल 

उपनिषदें हैं इनकी ढाल 

उधर सजे मोती के थाल 

इधर जमे सतजुगी दलाल 

मत पूछो तुम इनका हाल 

सर्वोदय के नटवरलाल 

मूँड़ रहे दुनिया-जहान को तीनों बंदर बापू के 

चिढ़ा रहे हैं आसमान को तीनों बंदर बापू के 

करें रात-दिन टूर हवाई तीनों बंदर बापू के 

बदल-बदल कर चखें मलाई तीनों बंदर बापू के 

गांधी-छाप झूल डाले हैं तीनों बंदर बापू के 

असली हैं, सर्कस वाले हैं तीनों बंदर बापू के 

दिल चटकीला, उजले बाल 

नाप चुके हैं गगन विशाल 

फूल गए हैं कैसे गाल 

मत पूछो तुम इनका हाल 

सर्वोदय के नटवरलाल 

हमें अँगूठा दिखा रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

कैसी हिकमत सिखा रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

प्रेम-पगे हैं, शहद-सने हैं तीनों बंदर बापू के 

गुरुओं के भी गुरु बने हैं तीनों बंदर बापू के 

सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बंदर बापू के 

बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के! 

Wednesday, September 1, 2021

तू खुद की खोज मे निकल ||Tu Chal||Hindi Poetry || Motivational Video || Tanveer Ghazi ||PoemNagari

प्रस्तुत कविता तनवीर गाज़ी द्वारा लिखित है ।

तू खुद की खोज में निकल,
तू किस लिए हताश हैं,
तू चल-२
तेरे वजूद की समय को भी तलाश है,

जो तुझसे लिपटी बेड़ियां,
समझ ना इनको वस्त्र तू,
ये बेड़ियां पिघाल के,
बना लें इनको शस्त्र तू ,
तू खुद की खोज में.....

चरित्र जब पवित्र है ,
तो क्यों है ये दशा तेरी ,
ये पापीयों को हक़ नहीं ,
की लें परीक्षा तेरी ,
तू खुद की खोज में निकल ....

जला के भस्म कर उसे ,
जो क्रुरता का जाल है,
तू आरती की लौ नहीं ,
तू क्रोध की मशाल है ,
तू खुद .....

चुनर उड़ा के ध्वज़ बना ,
गगन भी कपकपाएगा,
अगर तेरी चुनर गिरी ,
तो एक भूकंप आएगा ,
तू खुद की खोज में निकल,
तू किस लिए हताश हैं,
तू चल ,तू चल ,
तेरे वजूद की समय को भी तलाश है ।

Top Motivational Video||Tum Mujhe Kab tak Rokoge||Amitabh Bachchan||PoemNagari|InspiringforAspirants

प्रस्तुत कविता सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के द्वारा लिखित है ।


  मुट्ठी में कुछ सपने लेकर , भर कर जेबों में आशाएं

दिल में है अरमान यही , कुछ कर जाएं , कुछ कर जाएं।
सूरज सा तेज़ नहीं मुझमे , दीपक सा जलता देखोगे
सूरज सा तेज़ नहीं मुझमे , दीपक सा जलता देखोगे
अपनी हद रौशन करने से
तुम मुझको कब तक रोकोगे,
तुम मुझको कब तक रोकोगे..
मैं उस माटी का वृक्ष नहीं , जिसको नदियों ने सींचा है
मैं उस माटी का वृक्ष नहीं , जिसको नदियों ने सींचा है
बंजर माटी में पलकर मैंने मृत्यु से जीवन खिंचा है
मैं पत्थर पे लिखी इबारत हु , शीशे से कब तक तोड़ोगे
मिटने वाला मैं नाम नहीं,
तुम मुझको कब तक रोकोगे ,
तुम मुझको कब तक रोकोगे..
इस जग में जितने जुल्म नहीं उतने सहने की ताकत है
इस जग में जितने जुल्म नहीं उतने सहने की ताकत है
तानो के भी शोर में रहकर , सच कहने की आदत है
मैं सागर से भी गहरा हु ,मैं सागर से भी गहरा हु,
तुम कितने कंकड़ फेंकोगे
चुन चुन के आगे बढूंगा मैं,
तुम मुझको कब तक रोकोगे,
तुम मुझको कब तक रोकोगे..
झुक झुक कर सीधा खड़ा हुआ , अब फिर झुकने का शौख नहीं
झुक झुक कर सीधा खड़ा हुआ , अब फिर झुकने का शौख नहीं
अपने ही हाथों रचा स्वयं , तुमसे मिटने का खौफ़ नहीं
तुम हालातों की भट्टी में जब जब भी मुझको झांकोगे
तब तप कर सोना बनूँगा मैं
तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे
तुम मुझको कब तक रोकोगे….

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...