Friday, December 31, 2021

Happy New Year 2022 || वक़्त गुजरता गया ||Day Special || हिंदी कविता || PoemNagari

वक़्त का बदलाव ना थमा है , ना कभी थमेगा ,
सदियों से चला आ रहा सदियों तक ये चलेगा ।।
मैं भी चला तुम भी चले  एक रोज  थक गए , रूक गये
पर ये रूका , ये ना थका  चलता रहा ...
प्यारे मित्रों ,
Happy New Year 2022, नए साल की आप सभी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
कितना अच्छा लगता है जब लोग एक दूसरे को शुभकामनाएं देते है , की नया साल मंगलमय हो । उनकी बातों से एक नयी उमंग और उल्लास की अनुभूति होती हैं - हृदय प्रफुल्लित हो उठता है या यूं कहें कि दिल गार्डन - गार्डन हो जाता है ।
प्यारे मित्रों आपके पास भी आज सुबह से अनेकों मैसेजज आई होगी, कुछ तो ऐसी मैसेजेज भी होंगी , जो सामान्य मैसेजों से अलग होंगी , जिसमें कुछ चुटकुले होंगे, या कुछ ग़ज़लें होगी, या फिर कोई कविता या कहानी के साथ नये साल की शुभकामनाएं होगी ।
आज के दिन को कुछ खास बनाने के लिए मैं आप सभी को एक कविता सुनाऊंगा । जो कल रात को ही मैंने लिखीं हैं - उम्मीद है आपको पसंद आएगी ।
वक़्त गुजरते गए , कुछ आपने बिछड़ते गए
कुछ अपने बने गैर भी, कुछ बिगड़े सम्भलते गए
वक़्त गुजरते गए ,
सवाल जो उठे थे मन में  , इस दुनिया को देख कर 
मेरे वे सवाल सारे खुद सुलझते  गए,
वक़्त गुजरते गए, कुछ आपने बिछड़ते गए,
वक़्त गुजरते गए ।
बहुत सारे सवालों का जवाब वक़्त के हाथों में होता है, 
सही वक़्त आने पर ही उसका जवाब मिलता है ।
जानें से पहले , एक बार फिर से आप सभी को नव वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Wednesday, December 29, 2021

यूं ही कभी पूछ लिया हो||WalkieTalkie|| Ep-03||PoemNagari|चाँद और कवि| रामधारी सिंह दिनकर की कविता

नमस्कार दोस्तों मैं आपका दोस्त किशोर आप सभी का स्वागत करता हूं walkie Talkie तीसरे इपिसोड में, हर रविवार रात के नौ बजे मैं आप सभी से मिलता हूं कुछ खट्टी-मीठी बातों के साथ एक कविता लेकर ।
        प्यारे मित्रों , ठंडी पहले से बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है, मुझे आशा है की आप सभी अपना बहुत बढ़िया से ख्याल रख रहे होंगे , आपके यहां मौसम का क्या मिजाज है ? कमेंट बॉक्स में मुझे बताएं - साथ ही यह भी ख्याल रखें कि आपके आस पास इस मौसम के मार से कोई बेहाल तो नहीं ... जिनकी आप मदद कर सकते हो ? आपके सहयोग से किसी को आराम मिले , इससे बड़े सुकून के पल क्या ही हो सकता हैं ।
  दोस्तों क्या आप कभी रात में चांद से बातें की हैं , या यूं कहें की आसमान में चांद को देख कर कुछ कल्पनाएं की है, जैसे की यूं ही कभी पूछ लिया हो - ओ चंदा मामा आप तो सदियों से इस दुनिया को निहारते आ रहे हो , तो कुछ ऐसा मुझे बताओ जो सिर्फ तुम जानते हो , क्योंकि हमारी ये छोटी-छोटी आंखें बहुत सारी चीज़ें को देख ही नहीं पाती - और फिर चांद को एक टक से निहारे हुए आपके मन में अथाह सवालों और जबाबों का सिलसिला शुरू हो गया हो - 

प्यारे मित्रों दिनकर जी एक ऐसी ही कविता है जिसका नाम है - चांद और कवि - को सुनते हैं ।

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू -2 कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"

 प्यारे मित्रों आज हम जो निरंतर प्रगतिशील है ,यह हमरी कल्पना शक्ति की ही देन है, Imagination -  
इंसान imagine करता है और उसे आकार देता है - 
क्या आपने भी imagine करके कोई कविता लिखी है, तो हमें जरूर भेजें , हमें बहुत खुशी होगी , आज के लिए इतना ही । फिर मिलता हूं तब तक के लिए
मुझे इजाज़त दे, नमस्कार।

Sunday, December 26, 2021

महाभारत मही पर चल रहा है ||रश्मिरथी ||सप्तम सर्ग || Part-21 || रामधारी सिंह दिनकर ||PoemNagari

प्यारे मित्रों हम सभी आज से रश्मिरथी सप्तम सर्ग सुनेंगे, पीछले अंक में आपने सुना की कैसे भगवान श्री कृष्ण एकाघ्नी शस्त्र के प्रहार से अर्जुन को बचाते हैं , और आज के इस अंक में हम सुनेंगे की अब कर्ण अर्जुन से युद्ध के पहले अपनी बची हुई कौन-कौन सी  शक्तियों को जागृत एवं एकत्रित कर  आगे बढ़ रहा है -तो सुनते हैं ।


निशा बीती, गगन का रूप दमका,

किनारे पर किसी का चीर चमका।

क्षितिज के पास लाली छा रही है,

अतल से कौन ऊपर आ रही है ?

संभाले शीश पर आलोक-मंडल

दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल,

किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी,

शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी,

खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन

कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन,

दिवस की स्वामिनी आई गगन में,

उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में ।

मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर,

अलग बैठा हुआ है दूर होकर,

उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ?

करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ?

मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है,

कुतुक का उत्स पानी हो चुका है,

प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ?

सितारों के हृदय में राह खोजे ?

विभा नर को नहीं भरमायगी यह  ?

मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह ?

कभी मिलता नहीं आराम इसको,

न छेड़ो, है अनेकों काम इसको ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है।

मनुज ललकारता फिरता मनुज को,

मनुज ही मारता फिरता मनुज को ।

पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है,

सहेली सर्पिणी की हो चुकी है,

न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह,

निगल ही जायगी सद्धर्म को वह ।

मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें,

पिता के प्राण सुत के साथ छूटें,

मचे घनघोर हाहाकार जग में,

भरे वैधव्य की चीत्कार जग में,

मगर, पत्थर हुआ मानव- हृदय है,

फकत, वह खोजता अपनी विजय है,

नहीं ऊपर उसे यदि पायगा वह,

पतन के गर्त में भी जायगा वह ।

पड़े सबको लिये पाण्डव पतन में,

गिरे जिस रोज द्रोणाचार्य रण में,

बड़े धर्मिंष्ठ, भावुक और भोले,

युधिष्ठिर जीत के हित झूठ बोले ।

नहीं थोड़े बहुत का भेद मानो,

बुरे साधन हुए तो सत्य जानो,

गलेंगे बर्फ में मन भी, नयन भी,

अँगूठा ही नहीं, संपूर्ण तन भी ।

नमन उनको, गये जो स्वर्ग मर कर,

कलंकित शत्रु को, निज को अमर कर,

नहीं अवसर अधिक दुख-दैन्य का है,

हुआ राधेय नायक सैन्य का है ।

जगा लो वह निराशा छोड़ करके,

द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,

गरजता ज्योति-के आधार ! जय हो,

चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।

बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,

किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।

छिपे हों देवता ! अंगार जो भी,"

दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,

उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !

मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे !

पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,

विकर्तन ! आज अपना तेज-बल दो !

मही का सूर्य होना चाहता हूँ,

विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।

समय को चाहता हूँ दास करना,

अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।

भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,

हिमालय को उठाना चाहता हूँ,

समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,

धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।

ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,

हथेली पर नचाना चाहता हूँ ।

मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,

हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।

समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,

धधक कर आज जीना चाहता हूँ,

समय को बन्द करके एक क्षण में,

चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।

असंभव कल्पना साकार होगी,

पुरुष की आज जयजयकार होगी।

समर वह आज ही होगा मही पर,

न जैसा था हुआ पहले कहीं पर ।

चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;

नियति की दूतियो ! मस्तक झुका लो ।

चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,

ढलो, जिस भांति ढलने को कहूँ मैं ।

न कर छल-छद्म से आघात फूलो,

पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो ।

कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,

चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा ।

अरी, यों भागती कबतक चलोगी ?

मुझे ओ वंचिके ! कबतक छलोगी ?

चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा ?

रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा ?

अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,

हृदय की भावना निष्काम तुमसे,

चले संघर्ष आठों याम तुमसे,

करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे ।

कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?

कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरोगी ?

तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,

न संचय कर्ण का नि:शेष होगा ।

कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण तो हैं,

भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,

गई एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?

बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?

समर की सूरता साकार हूँ मैं,

महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।

विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,

कवच है आज तक का धर्म मेरा ।

तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम,

नई एकघ्नियां वन कर ढलो तुम,

अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;

प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ ।

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,

अरी व्रत-साधने ! आकार लो तुम ।

हमारे योग की पावन शिखाओ,

समर में आज मेरे साथ आओ ।

उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,

मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,

चलें वे भी हमारे साथ होकर,

पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर ।

हृदय से पूजनीया मान करके,

बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,

सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,

अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,

समर में तो हमारा वर्म हो वह,

सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।

सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,

उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,

विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।

स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,

अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।

मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,

नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,

बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,

समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है ।

बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,

'बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,

पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,

सभी के सामने ललकार को मन मार सहना ।

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,

धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब ।

कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?

नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह ।

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,

जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं ।

हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या ?

समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ?

मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है ?

यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा ?

जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?

करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब कुछ क्षमा है,

मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?

चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा ?

न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा ।

डिगाना धर्म क्या इस चार बित्त्तो की मही को ?

भुलाना क्या मरण के बाद वाली जिन्दगी को ?

बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !

मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,

विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !

विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;

असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।

जगी, बलिदान की पावन शिखाओ,

समर में आज कुछ करतब दिखाओ ।

नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,

धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।

मचे भूडोल प्राणों के महल में,

समर डूबे हमारे बाहु-बल में ।

गगन से वज्र की बौछार छूटे,

किरण के तार से झंकार फूटे ।

चलें अचलेश, पारावार डोले;

मरण अपनी पुरी का द्वार खोले ।

समर में ध्वंस फटने जा रहा है,

महीमंडल उलटने जा रहा है ।

अनूठा कर्ण का रण आज होगा,

जगत को काल-दर्शन आज होगा ।

प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,

वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा ।

विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,

नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा ।

गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,

जयी कुरुराज लौटेगा समर से ।

बना आनन्द उर में छा रहा है,

लहू में ज्वार उठता जा रहा है ।

हुआ रोमांच यह सारे बदन में,

उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में ।

अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,

जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?

बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,

सजाओ, शल्य ! मेरा रथ सजाओ ।

आज के लिए बस इतना ही,
आगे की कहानी अगले भाग में,
अगले भाग की कहानी आती  ही आपको सबसे पहले पता चले, इसके लिए PoemNagari को Subscribe कर bell icon को on कर लें,
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Saturday, December 25, 2021

Walkie Talkie ||Ep-02 ||PoemNagari

नमस्कार दोस्तों मैं आपका दोस्त किशोर आपका स्वागत करता हूं walkie Talkie के दुसरे इपिसोड में । तो कैसे हैं आप सभी । किसी ने ठीक ही कहा है की -
"जीवन में कुछ करना है तो मेहनत में विश्वास करनी चाहिए , अक्सर लोगों को हमने जुएं में किस्मत आजमाते देखें हैं ।
कभी कभी हम life में बहुत लेट हो जाते हैं एक चीज जो हमें बहुत परेशान करती रहती है वह ये है की लोग क्या सोचेंगे , लोग क्या कहेंगे , अरे ये लोगो की बातें ,लोगों को करने दो , तुम आपने विश्वास को मजबूत कर आगे बढ़ते रहो , यकीन मानो सारी मुश्किलें आसान हो जाएगी -
 तू अपनी खूबियां ढूंढ,
कमियां निकालने के लिए लोग हैं ना...
कदम रखना ही है तो आगे रख,
पीछे खींचने के लिए लोग हैं ना...

सपने देखने ही है तो ऊंचे देख,
नीचा दिखाने के लिए लोग हैैं ना...

अपने अंदर जुनून की चिंगारी भड़का,
जलने के लिए लोग हैैं ना...

अगर बनानी है तो यादें बना,
बातें बनाने के लिए लोग हैं ना...

अगर कुछ करना ही तो मोहब्बत कर,
दुश्मनी करने के लिए लोग हैं ना...

रहना है तो बच्चा बनकर रह,
समझदार बनाने के लिए लोग हैं ना ...

भरोसा रखना है तो ख़ुद पर रख,
शक करने के लिए लोग हैैं ना...

तू बस सवार ले ख़ुद को,
आईना दिखाने के लिए लोग हैं ना...

ख़ुद की अलग पहचान बना,
भीड़ में चलने के लिए लोग हैं ना...

तू कुछ करके दिखा दुनिया को,
तालियां बजाने के लिए लोग हैैं ना..

जो भी करना हैं तू आज कर
कल कहने के लिए लोग हैं ना...

तो क्या समझे , यही ना की कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना । प्यारे मित्रों ,खुद पे यकीन हो , तो डर खुद डर के भाग खड़ा होता है और सफलता आपके तरफ कदम बढ़ाने लगती है , तो स्वागत करें सफलता का जो आपके तरफ भागे चली आ रही है । और अब मुझे इजाज़त दिजिए , नमस्कार ।

Friday, December 17, 2021

Walkie Talkie Ep-01

Hello Guys , 
Walkir - Talkie  के पहले episode में आपका स्वागत है , हर रविवार रात के नौ बजे मैं आपका दोस्त किशोर आपसे मुखातिब होऊंगा ...

मुझे ठीक-ठीक याद है मैं 8th क्लास में था एक अलग ही दुनिया थी अभी के इस  दुनिया से बिल्कुल अलग थलग ,एक सुकून भरी दुनिया ।
      उस वक्त एक कविता पढ़ी थी , वो शब्द क्या कहना चाहते थे   कुछ खास मालूम नहीं पड़ता था,  बस पढ़ते रहते थे,या  यूं कहें कि  मीठ्ठू की तरह रटते रहते थे -  लेकिन अब जब वही लाइनें  दोहराता हूं तो कुछ - कुछ महसूस भी कर पाता हूं  - मैं एक काम करता हूं , पहले आपको उस कविता को सुनाता हूं , फिर आपसे एक प्रश्न पुछुगा , इस लिए ध्यान से सुनिएगा -
कविता का शीर्षक है - "जीवन का झरना"  
आरसी प्रसाद सिंह जी द्वारा लिखित हैं ।
यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।
कब फूटा गिरि के अंतर से? किस अंचल से उतरा नीचे?
किस घाटी से बह कर आया समतल में अपने को खींचे?

निर्झर में गति है, जीवन है, वह आगे बढ़ता जाता है!
धुन एक सिर्फ़ है चलने की, अपनी मस्ती में गाता है।

बाधा के रोड़ों से लड़ता, वन के पेड़ों से टकराता,
बढ़ता चट्टानों पर चढ़ता, चलता यौवन से मदमाता।

लहरें उठती हैं, गिरती हैं; नाविक तट पर पछताता है।
तब यौवन बढ़ता है आगे, निर्झर बढ़ता ही जाता है।

निर्झर कहता है, बढ़े चलो! देखो मत पीछे मुड़ कर!
यौवन कहता है, बढ़े चलो! सोचो मत होगा क्या चल कर?

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

निर्झर ,  Waterfall अनंतकाल से पर्वतों से जो पानी के झरने गीरते आ रहे हैं , नदियां जिससे अपना रूप लेती है और कल - कल बहती जाती हैं , रास्तों के बाधाओं से जुझती , लड़ती - भीड़ती है , लेकिन रूकती नहीं, थमती नही ।
आखिरी की दो लाइनें -  कितना कुछ कहती कह जाती है, आपने गौर किया ?

चलना है, केवल चलना है ! जीवन चलता ही रहता है !
रुक जाना है मर जाना ही, निर्झर यह झड़ कर कहता है !

यानी  - गतिशीलता ही जीवन हैं और ठहराव मौत ।
इससे सरल और simple क्या ही हो सकती जीवन को समझने के लिए ।
प्यारे मित्रों , आप जीवन को कैसे अनुभव करते हैं ? क्या वाकई में जीवन निर्झर के समान है या कोई और परिभाषा जो जीवन को और आसानी से  समझने में हमारी मदद कर सकती हैं - आपके द्वारा साझा की गई  सही  अनुभव इस परिभाषा को और समृद्ध करेंगे । 

Friday, December 10, 2021

तमाशा || हिंदी कविता || अशोक चक्रधर || Recited by Kishor || PoemNagari

प्रस्तुत कविता अशोक चक्रधर जी द्वारा लिखित है।

कविता शीर्षक - तमाशा
लेखक - अशोक चक्रधर

अब मैं आपको कोई कविता नहीं सुनाता
एक तमाशा दिखाता हूँ 
और आपके सामने एक मजमा लगाता हूँ।
ये तमाशा कविता से बहूत दूर है,
दिखाऊँ साब, मंजूर है?
कविता सुनने वालो
ये मत कहना कि कवि होकर
मजमा लगा रहा है,
और कविता सुनाने के बजाय
यों ही बहला रहा है।
दरअसल, एक तो पापी पेट का सवाल है
और दूसरे, देश का दोस्तो ये हाल है
कि कवि अब फिर से एक बार
मजमा लगाने को मजबूर है,
तो दिखाऊँ साब, मंजूर है?
बोलिए जनाब बोलिए हुजूर!
तमाशा देखना मंजूर?
थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने 'हाँ' कही बहुत अच्छा किया।
आप अच्छे लोग हैं बहुत अच्छे श्रोता हैं
और बाइ-द-वे तमाशबीन भी खूब हैं,
देखिए मेरे हाथ में ये तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।

कहाँ हैं?
ग़ौर से देखिए ध्यान से देखिए,
मन की आँखों से कल्पना की पाँखों से देखिए।
देखिए यहाँ हैं।
क्या कहा, उँगलियाँ हैं?
नहीं - नहीं टैस्ट-ट्यूब हैं
इन्हें उँगलियाँ मत कहिए,
तमाशा देखते वक्त दरियादिल रहिए।
आप मेरे श्रोता हैं, रहनुमा हैं, सुहाग हैं
मेरे महबूब हैं,
अब बताइए ये क्या हैं?
तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।
वैरी गुड, थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने उँगलियों को टैस्ट-ट्यूब बताया
बहुत अच्छा किया
अब बताइए इनमें क्या है?
बताइए-बताइए इनमें क्या है?
अरे, आपको क्या हो गया है?
टैस्ट-ट्यूब दिखती है
अंदर का माल नहीं दिखता है,
आपके भोलेपन में भी अधिकता है।

ख़ैर छोड़िए
ए भाईसाहब!
अपना ध्यान इधर मोड़िए।
चलिए, मुद्दे पर आता हूँ,
मैं ही बताता हूँ, इनमें खून है!
हाँ भाईसाहब, हाँ बिरादर,
हाँ माई बाप हाँ गॉड फादर! इनमें खून हैं।
पहले में हिंदू का
दूसरे में मुसलमान का
तीसरे में सिख का खून है,
हिंदू मुसलमान में तो आजकल
बड़ा ही जुनून हैं।
आप में से जो भी इनका फ़र्क बताएगा
मेरा आज का पारिश्रमिक ले जाएगा।
हर किसी को बोलने की आज़ादी है,
खरा खेल, फ़र्क बताएगा
न जालसाज़ी है न धोखा है,
ले जाइए पूरा पैसा ले जाइए जनाब, मौका है।

फ़र्क बताइए,
तीनों में अंतर क्या है अपना तर्क बताइए
और एक कवि का पारिश्रमिक ले जाइए।
आप बताइए नीली कमीज़ वाले साब,
सफ़ेद कुर्ते वाले जनाब।
आप बताइए? जिनकी इतनी बड़ी दाढ़ी है।
आप बताइए बहन जी
जिनकी पीली साड़ी है।
संचालक जी आप बताइए
आपके भरोसे हमारी गाड़ी है।
इनके मुँह पर नहीं पेट में दाढ़ी है।

ओ श्रीमान जी, आपका ध्यान किधर है,
इधर देखिए तमाशे वाला तो इधर है।

हाँ, तो दोस्तो!
फ़र्क है, ज़रूर इनमें फ़र्क है,
तभी तो समाज का बेड़ागर्क है।
रगों में शांत नहीं रहता है,
उबलता है, धधकता है, फूट पड़ता है
सड़कों पर बहता है।
फ़र्क नहीं होता तो दंगे-फ़साद नहीं होते,
फ़र्क नहीं होता तो खून-ख़राबों के बाद
लोग नहीं रोते।
अंतर नहीं होता तो ग़र्म हवाएँ नहीं होतीं,
अंतर नहीं होता तो अचानक विधवाएँ नहीं होतीं।

देश में चारों तरफ़
हत्याओं का मानसून है,
ओलों की जगह हड्डियाँ हैं
पानी की जगह खून है।
फ़साद करने वाले ही बताएँ
अगर उनमें थोड़ी-सी हया है,
क्या उन्हें साँप सूँघ गया है?

और ये तो मैंने आपको
पहले ही बता दिया
कि पहली में हिंदू का
दूसरी में मुसलमान का
तीसरी में सिख का खून है।
अगर उल्टा बता देता तो कैसे पता लगाते,
कौन-सा किसका है, कैसे बताते?

और दोस्तो, डर मत जाना
अगर डरा दूँ, मान लो मैं इन्हें
किसी मंदिर, मस्जिद
या गुरुद्वारे के सामने गिरा दूँ,
तो है कोई माई का लाल
जो फ़र्क बता दे,
है कोई पंडित, है कोई मुल्ला, है कोई ग्रंथी
जो ग्रंथियाँ सुलझा दे?
फ़र्श पर बिखरा पड़ा है, पहचान बताइए,
कौन मलखान, कौन सिंह, कौन खान बताइए।

अभी फोरेन्सिक विभाग वाले आएँगे,
जमे हुए खून को नाखून से हटाएँगे।
नमूने ले जाएँगे
इसका ग्रुप 'ओ', इसका 'बी'
और उसका 'बी प्लस' बताएँगे।
लेकिन ये बताना
क्या उनके बस का है,
कि कौन-सा खून किसका है?

कौम की पहचान बताने वाला
जाति की पहचान बताने वाला
कोई माइक्रोस्कोप है? वे नहीं बता सकते
लेकिन मुझे तो आप से होप है।
बताइए, बताइए, और एक कवि का
पारिश्रमिक ले जाइए।

अब मैं इन परखनलियों को v
स्टोव पर रखता हूँ, उबाल आएगा,
खून खौलेगा, बबाल आएगा।

हाँ, भाईजान
नीचे से गर्मी दो न तो खून खौलता है
किसी का खून सूखता है, किसी का जलता है
किसी का खून थम जाता है,
किसी का खून जम जाता है।
अगर ये टेस्ट-ट्यूब फ्रिज में रखूँ खून जम जाएगा,
सींक डालकर निकालूँ तो आइस्क्रीम का मज़ा आएगा।
आप खाएँगे ये आइस्क्रीम
आप खाएँगे,
आप खाएँगी बहन जी
भाईसाहब आप खाएँगे?

मुझे मालूम है कि आप नहीं खा सकते
क्योंकि इंसान हैं,
लेकिन हमारे मुल्क में कुछ हैवान हैं।
कुछ दरिंदे हैं,
जिनके बस खून के ही धंधे हैं।
मजहब के नाम पे, धर्म के नाम पे
वो खाते हैं ये आइस्क्रीम मज़े से खाते हैं,
भाईसाहब बड़े मज़े से खाते हैं,
और अपनी हविस के लिए
आदमी-से-आदमी को लड़ाते हैं।

इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं,
इन्हें मीठी लोरियों का सुर नहीं भाता है।
माँग के सिंदूर से इन्हें कोई मतलब नहीं
कलाई की चूड़ियों से इनका नहीं नाता है।
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं।
अरे गुरु सबका, गॉड सबका, खुदा सबका
और सबका विधाता है,
लेकिन इन्हें तो अलगाव ही सुहाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर
तरस नहीं आता है।
मस्जिद के आगे टूटी हुई चप्पलें
मंदिर के आगे बच्चों के बस्ते
गली-गली में बम और गोले
कोई इन्हें क्या बोले,
इनके सामने शासन भी सिर झुकाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता है।

हाँ तो भाईसाहब!
कोई धोती पहनता है, कोई पायजामा
किसी के पास पतलून है,
लेकिन हर किसी के अंदर वही खून है।
साड़ी में माँ जी, सलवार में बहन जी
बुर्के में खातून हैं,
सबके अंदर वही खून है,
तो क्यों अलग विधेयक है?
क्यों अलग कानून है?

ख़ैर छोड़िए आप तो खून का फ़र्क बताइए,
अंतर क्या है अपना तर्क बताइए।
क्या पहला पीला, दूसरा हरा, तीसरा नीला है?
जिससे पूछो यही कहता है
कि सबके अंदर वही लाल रंग बहता है।

और यही इस तमाशे की टेक हैं,
कि रंगों में रहता हो या सड़कों पर बहता हो
लहू का रंग एक है।
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि अलग-अलग टैस्ट-ट्यूब में हैं,
अंतर खून में नहीं है, मज़हबी मंसूबों में हैं।

मज़हब जात, बिरादरी
और खानदान भूल जाएँ
खूनदान पहचानें कि किस खूनदान के हैं,
इंसान के हैं कि हैवान के हैं?
और इस तमाशे वाले की
अंतिम इच्छा यही है कि
खून सड़कों पर न बहे,
वह तो धमनियों में दौड़े
और रगों में रहे।
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे।

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...