Tuesday, October 27, 2020

Tum Chale Aana| HindiPoetry|PoemNagari

Poetry No.01
Season -02
#तुमचलेआना ।
Hello दोस्तों,

ये ख़त पाकर इसी ख़त के बहाने तुम चले आना
मोहब्बत को हमारी आज़माने तुम चले आना।

खत का नाम सुनते ही उससे जुड़ी खट्टी मीठी  यादें ताजा होने  लगती है आज के Whatsapp के Time में  हमसभी  Real समय में  Message कर सकते हैं बातें कर सकते हैं और Face to face मुखातिब भी हुआ जा सकता अगर आप चाहें .... बिना किसी देरी के घंटों लगातार...
इन सारी सहुलियतो के मध्यनज़र कुछ मित्रों के जीवन-यापन की  सबसे बड़ी समस्या  ये हो गई कि अगर दो-चार सेकेंड के लिए Internet Slow हो जाए तो भकुआ जाते हैं और खिसिया-खिसिया कर हाथ-पैर इधर मारने लगते हैं। उन मित्रों के लिए moral of the story यह है कि Don't Be गुलाम of Technology , इसका सदुपयोग करिए और आगे बढिए ।


तो फिर से वापस कविता पर लौटते हैं।

ये ख़त पाकर इसी ख़त के बहाने तुम चले आना
मोहब्बत को हमारी आज़माने तुम चले आना।

तुम्हें वादा अगर हो याद अपना तो ये ख़त पढ़कर
इजाज़त है कि वादे को निभाने तुम चले आना।

जगाया चूमकर पलकें हमें जिस दिन, हुआ था तय
कभी मैं रूठ जाऊं तो मनाने तुम चले आना।

पहुंचने से तेरे पहले, अगर ये दम निकल जाये
मैं 'लावारिस' नहीं हूँ, ये बताने तुम चले आना।

दरअसल ये कविता कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास' जी द्वारा लिखित है ।
इन पंक्तियों से DevDas वाली Feeling आ रही है,आपने  ये Movie देखी है,
खैर आगे बढ़ते हैं ।

कोई आये न आये तुम से ये

मेरी गुज़ारिश है
दिया इक कब्र पर मेरी जलाने तुम चले आना।

तुम्हारी याद में जब हम कभी बैचैन हो जाएं
ग़ज़ल कोई हमारी गुनगुनाने तुम चले आना।

हमेशा जीतते 'विश्वास' आये शर्त अब तक तुम
चलो इक बार मुझको फिर हराने तुम चले आना।

हमारे Life  में ऐसे वक्त भी चले आते जब body में कुछ ऐसे chemicalलोचा  Release होते  है,की बावरा मन भटकता चला जाता है।
That Is Not Good  For Health.

जिंदगी गर रंग ना बदले तो एक जगह ठहर जाती है।
ठहराव मौत , चलना  जीवन
And Choice Is Yours.

Wednesday, October 21, 2020

Aphvah Hai Ya Sach Hai |Ye Koe Nahi Bola |HindiPoetry |Dushyant Kumar |PoemNagari


यह कविता दुष्यंत कुमार द्वारा लिखित है ।

अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला

                        

अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला


मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से


पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला

लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है


इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला

आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं


इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला

सोचा कि तू सोचेगी, तूने किसी शायर की


दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला

Tuesday, October 20, 2020

Himmat Aur Zindagi |Motivational Video | PoemNagari| Ramdhari Singh'Dinkar'

There are no need of Motivation or  self-confidence  If U have clarity. 

ज़िन्दगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं जो फूलों की छांह के नीचे खेलते और सोते हैं । बल्कि फूलों की छांह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कंठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है । पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जनता है जो धूप में खूब सूख चूका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है ।
सुख देनेवाली चीजें पहले भी थीं और अब भी हैं । फर्क यह है की जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद में लेते हैं उन्हें स्वाद अधिक मिलता है । जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है।
जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है। लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है वे मोती लेकर बहार आएंगे ।
चांदनी की ताजगी और शीतलता का आनंद वह मनुष्य लेता है जो दिनभर धूप में थककर लौटा है, जिसके शरीर को अब तरलाई की जरूरत महसूस होती है और जिसका मन यह जानकर संतुस्ट है कि दिन भर का समय उसने किसी अच्छे काम में लगाया है।

इसके विपरीत वह आदमी भी है जो दिन भर खिड़कियाँ बंद करके पंखों के निचे छिपा हुआ था और अब रात में जिसकी सेज बाहर चांदनी में लगाई गई है । भ्रम तो शायद उसे भी होता होगा कि वह चांदनी के मजे ले रहा है, लेकिन सच पूछिए तो वह खुशबूदार फूलों के रस में दिन-रात सड़ रहा है ।

उपवास और संयम ये आत्महत्या के साधन नहीं हैं । भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। 'त्यक्तेन भुंजीथा:', जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन में जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पता ।
बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्ज़ा करती हैं । अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एक मात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी।
महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे । मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई ; क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था ।
श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है की ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है । आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।

ज़िन्दगी की दो सूरतें हैं । एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाये, और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अंधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पावँ न हटाये।
दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाये जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुःख पाने का ही संयोग है, क्योंकि वे आत्माएं ऐसी गोधूलि में बसती हैं जहाँ न तो जीत हंसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। इस गोधूली वाली दुनिया के लोग बंधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे ज़िन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी ज़िन्दगी को दाव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है?
अगर रास्ता आगे ही निकल रहा है तो फिर असली मजा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है।
साहस की ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़िन्दगी होती है। ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात कि चिन्ता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीनेवाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।
साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है।
झुंड में चलना और झुंड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है। सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मगन रहता है।
अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, ज़िन्दगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता। बड़े मौके पर साहस नहीं दिखानेवाला आदमी बराबर अपनी आत्मा के भीतर एक आवाज सुनता रहता है, एक ऐसी आवाज जिसे वही सुन सकता है और जिसे वह रोक भी नहीं सकता । यह आवाज उसे बराबर कहती रहती है, " तुम साहस नहीं दिखा सके, तुम कायर की तरह भाग खड़े हुए।" सांसारिक अर्थ में जिसे हम सुख कहते हैं उसका न मिलना, फिर भी, इससे कही श्रेष्ठ है कि मरने के समय हम अपनी आत्मा से यह धिक्कार सुनें की तुममें हिम्मत की कमी थी, कि तुममें साहस का आभाव था, कि तुम ठीक वक़्त पर ज़िन्दगी से भाग खड़े हुए।

ज़िन्दगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम को हर जगह पर एक घेर डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और ज़िन्दगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने ज़िन्दगी को ही आने में रोक रखा है।

ज़िन्दगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमे पूंजी लगाते हैं। यह पूंजी लगाना ज़िन्दगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलट कर पढना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। ज़िन्दगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह जानकार चलता है की ज़िन्दगी कभी भी ख़त्म न होने वाली चीज़ है।
अरे ! ओ जीवन के साधकों ! अगर किनारे की मरी सीपियों से ही तुम्हे संतोष हो जाये तो समुद्र के अंतराल में छिपे हुए मौक्तिक - कोष को कौन बहार लायेगा ?
दुनिया में जितने भी मजे बिखेरे गए हैं उनमें तुम्हारा भी हिस्सा है । वह चीज भी तुम्हारी हो सकती है जिसे तुम अपनी पहुँच के परे मान कर लौटे जा रहे हो ।
कामना का अंचल छोटा मत करो, ज़िन्दगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस की निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है ।

यह अरण्य, झुरमुट जो काटे अपनी राह बना ले,
क्रीतदास यह नहीं किसी का जो चाहे अपना ले ।
जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर ! जो उससे डरते हैं ।
वह उनका जो चरण रोप निर्भय होकर लड़ते हैं ।

Saturday, October 10, 2020

10/10/2020 |HindiPoetry|PoemNagari |Kishor

10 10 20 20
आधी आधी पूरी पूरी
             A unique Day

Today Is 1010 2020
आज का दिन 10 10 20 20
क्या सिर्फ यही अद्वितीय हैं यूनिक है।
या फिर जीवन का हर एक क्षण,
Every Moment of life


जिसमें तुम मौजूद हो ,वह भी मायने रखता ?

शब्दों के शब्दपाश  या  विचारों के उहापेह में
स्वयं से कटे बटे ,भुले भटके बेहोशी में हो गुम
या खुद की बोध से सराबोर हो ?

यह सवाल या कथा कथित ज्ञान की बात नहीं !

समझ है।

पूरी पूरी आधी आधी आधी अधूरी या पूरी की पूरी,
इच्छाओं की होड़ में, आगे पीछे देखते और दौड़ते
क्या यही हो ?
या कहीं और हो तुम?

Friday, October 9, 2020

Tum Kaise Ho |HindiPoetry |PoemNagari |Vikram Sagar

This Poem Is Written By Indian Youth Poet Er.Vikram Sagar

तुम कैसे हो?

तुम बताओ अभी भी वैसे हो
 या कुछ बदले हो
बात करते हुए उंगलियों को दबाते हो
या आंख मिला कर बतियाते हो
अजनबी के संग शर्माते हो
या नजरे मिलाए मुस्कुराते हो
अभी भी वैसे हो
 या कुछ बदले हो
दिल के राज सब को बतलाते हो
या कुछ दर्द अपने दिल में भी छीपाते हो
मनमौजी बन हर जगह घूमते हो 
या संभल संभल कर कदम बढ़ाते हो

तुम बताओ अभी भी वैसे हो
 या कुछ बदले हो

दिल की बात गुनगुनाते हो
या गाकर सबको सुनाते हो 
सिर्फ दोस्ती का किस्सा बताते  हो
या  साथ भी   निभाते हो
बड़े सपने के पीछे दौड़ते हो
या छोटे सपनों को भी जिते हो


तुम कैसे हो  अभी भी वैसे हो
 या कुछ बदले हो

रात से अभी भी रूठे हो 
या चांद से बातें करते हो
बरसात से अभी भी  ख़फा हो
या बारिश में भी कभी भींगते हो
हमें सच में भुला दिए हो
या याद अभी भी  करते हो


माना की मजबूरी  है
पर दिल ने कई बारी पूछी है
कि तुम कैसे हो ?
बदले हो या वैसे हो
 तुम कैसे हो?. ...

Wednesday, October 7, 2020

Pathkku Ki Soojh |HindiPoetry |PoemNagari |Ramdhari Singh'Dinkar'

प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह 'दिनकर' जी द्वारा लिखित है।


पढ़क्‍कू की सूझ 

 

एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे,

जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे।

एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए,


"बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?"

कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है?


सिखा बैल को रक्खा इसने, निश्चित कोई ढब है।

आखिर, एक रोज़ मालिक से पूछा उसने ऐसे,


"अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे?

कोल्हू का यह बैल तुम्हारा चलता या अड़ता है?


रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है?"

मालिक ने यह कहा, "अजी, इसमें क्या बात बड़ी है?


नहीं देखते क्या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है?

जब तक यह बजती रहती है, मैं न फिक्र करता हूँ,


हाँ, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूँछ धरता हूँ"

कहाँ पढ़क्कू ने सुनकर, "तुम रहे सदा के कोरे!


बेवकूफ! मंतिख की बातें समझ सकोगे थोड़े !

अगर किसी दिन बैल तुम्हारा सोच-समझ अड़ जाए,


चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए।

घंटी टून-टून खूब बजेगी, तुम न पास आओगे,


मगर बूँद भर तेल साँझ तक भी क्या तुम पाओगे?

मालिक थोड़ा हँसा और बोला पढ़क्कू जाओ,


सीखा है यह ज्ञान जहाँ पर, वहीं इसे फैलाओ।

यहाँ सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है,


बैल हमारा नहीं अभी तक मंतिख पढ़ पाया है।


रामधारी सिंह 'दिनकर' ' हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे ।

एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।


Uchai |HindiPoetry |PoemNagari |Atal Bihari Vajpayee

प्रस्तुत कविता अटल बिहारी वाजपेयी जी द्वारा लिखित है ।

ऊँचाई
 

ऊँचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।



ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।



Tuesday, October 6, 2020

Kanupriya | HindiPoetry | PoemNagari | Dharmveer Bharati


प्रस्तुत कविता धर्मवीर भारती जी द्वारा लिखित है ।

कनुप्रिया - तुम मेरे कौन हो 

 तुम मेरे कौन हो कनु


मैं तो आज तक नहीं जान पाई

बार-बार मुझ से मेरे मन ने


आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है-


‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो !’

बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने


व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है-


‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’


बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने


कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है-


‘यह कान्ह आखिर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई


तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु !

अक्सर जब तुम ने


माला गूँथने के लिए


कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे लिए


श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर


मेरे आँचल में डाल दिये हैं


तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से


गरदन झटका कर


वेणी झुलाते हुए कहा है :


‘कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !’

अक्सर जब तुम ने


दावाग्नि में सुलगती डालियों,


टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और


घुटते हुए धुएँ के बीच


निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई


मुझे


साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में


फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया


और लपटें चीर कर बाहर ले आये


तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से


भरे-भरे स्वर में कहा है:


‘कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है


सहोदर है।’

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है


और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ


और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है


तो मैंने डूब कर कहा है:

‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’

पर जब तुम ने दुष्टता से


अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है


तब मैंने खीझ कर


आँखों में आँसू भर कर


शपथें खा-खा कर


सखी से कहा है :


‘कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है


मैं कसम खाकर कहती हूँ


मेरा कोई नहीं है !’

पर दूसरे ही क्षण


जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं


और बिजली तड़कने लगी है


और घनी वर्षा होने लगी है


और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं


तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है


तुम्हें सहारा दे-दे कर


अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आई हूँ


और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !


कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ


कि मैं कितनी छोटी हूँ


और तुम वही कान्हा हो


जो सारे वृन्दावन को


जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो,


और मुझे केवल यही लगा है


कि तुम एक छोटे-से शिशु हो


असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर


मेरे आँचल में दुबके हुए

और जब मैंने सखियों को बताया कि


गाँव की सीमा पर


छितवन की छाँह में खड़े हो कर


ममता से मैंने अपने वक्ष में


उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर


अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिए


तो मेरे उस सहज उद्गार पर


सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं


यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु


तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है,


कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है


तो मुझे अकस्मात् लगा है


कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूट पड़ रही है


तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ


तुम्हारा संबल,


तुम्हारी योगमाया,


इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ


विराट्,


सीमाहीन,


अदम्य,


दुर्दान्त;

किन्तु दूसरे ही क्षण


जब तुम ने वेतसलता-कुंज में


गहराती हुई गोधूलि वेला में


आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से


अपनी एक चुटकी में भर कर


मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया


तो मैं हतप्रभ रह गयी


मुझे लगा इस निखिल पारावार में


शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी


फैली हुई मैं


अकस्मात् सिमट आयी हूँ


सीमा में बँध गयी हूँ


ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?

पर जब मुझे चेत हुआ


तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी


मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू-


समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर


अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में


तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती


चली जाऊँगी...

इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे


और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!

पर तुम इतने निठुर हो


और इतने आतुर कि


तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में


इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की


समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ


और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर


क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ


मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं


कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि


मैं अब कहाँ हूँ


और तुम मेरे कौन हो


और इस निराधार भूमि पर


चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से


घबरा कर मैंने बार-बार


तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है।


सखा-बन्धु-आराध्य


शिशु-दिव्य-सहचर


और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं


सखी-साधिका-बान्धवी-


माँ-वधू-सहचरी


और मैं बार-बार नये-नये रूपों में


उमड़- उम़ड कर


तुम्हारे तट तक आयी


और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति


मुझे धारण कर लिया-


विलीन कर लिया-


फिर भी अकूल बने रहे

मेरे साँवले समुद्र


तुम आखिर हो मेरे कौन


मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?



धर्मवीर भारती आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे एक समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे। डॉ धर्मवीर भारती को १९७२ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास गुनाहों का देवता सदाबहार रचना मानी जाती है। सूरज का सातवां घोड़ा को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी, अंधा युग उनका प्रसिद्ध नाटक है।। इब्राहीम अलकाजीराम गोपाल बजाजअरविन्द गौड़रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।

Ho Gae Hai Peer Parvat-Si Pighalni Chahiye | HindiPoetry |PoemNagari | Dushyant Kumar

प्रस्तुत कविता दुष्यंत कुमार द्वारा लिखित है।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

दुष्यंत कुमार त्यागी (27 सितंबर 1931-30 दिसंबर 1975) एक हिन्दी कवि , कथाकार और ग़ज़लकार थे। कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है।
दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार का जन्‍म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।

Monday, October 5, 2020

Sakhi, Ve Mujhse Kah Kar Jate |HindiPoetry|PoemNagari| Maithali Sharan Gupt

प्रस्तुत कविता मैथिली शरण गुप्त द्वारा लिखित है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था ।
    उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी।उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।
           इस कविता में मैथिलीशरण गुप्त जी ने सिद्धार्थ (गौतमबुद्ध ) की अर्द्धांगिनी ( यशोधरा ) की मनोदशा को व्यक्त किए हैं जब सिद्धार्थ बिना बताए घर-बार छोड़ कर ज्ञान की खोज में निकल जाते हैं ।

सखि वे मुझसे कह कर जाते 


सखि, वे मुझसे कहकर जाते,


कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना


फिर भी क्या पूरा पहचाना?


मैंने मुख्य उसी को जाना


जो वे मन में लाते।


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,


प्रियतम को, प्राणों के पण में,


हमीं भेज देती हैं रण में -


क्षात्र-धर्म के नाते


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,


किसपर विफल गर्व अब जागा?


जिसने अपनाया था, त्यागा;


रहे स्मरण ही आते!


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,


पर इनसे जो आँसू बहते,


सदय हृदय वे कैसे सहते ?


गये तरस ही खाते!


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,


दुखी न हों इस जन के दुख से,


उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?


आज अधिक वे भाते!


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,


कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,


रोते प्राण उन्हें पावेंगे,


पर क्या गाते-गाते ?


सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

Mat Kaho Aakash Me Kuhra Ghana Hai |HindiPoetry |PoemNagari |Dushyant Kumar

प्रस्तुत कविता दुष्यंत कुमार जी द्वारा लिखित है।

             मत कहो, आकाश में कुहरा घना है ।

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,


यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,


क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,


हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,


बात इतनी है कि कोई पुल बना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,


आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,


शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,


आजकल नेपथ्य में संभावना है ।


दुष्यंत कुमार त्यागी (27 सितंबर 1931-30 दिसंबर 1975) एक हिन्दी कवि , कथाकार और ग़ज़लकार थे। कवि की पुस्तकों में जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 लिखी है, किन्तु दुष्यन्त साहित्य के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह के अनुसार कवि की वास्तविक जन्मतिथि 27 सितंबर 1931 है।

दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार का जन्‍म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।

From Home To Examination Hall |First Vlog| Traveling In Challenging Time | PoemNagari

महीनों तक अपने ही  घर में हम सभी कैद रहे हैं और अब जाकर थोड़ी-थोड़ी परिस्थितियां सही हो रही है और यह महामारी के दिन धीरे धीरे जा रहे हैं इसी बीच मेरा एग्जाम 1 अक्टूबर 2020 को मेरे घर से कई किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर में होने का सुनिश्चित हुआ, इसलिए मुझे जाना पड़ा एग्जाम देने और इसी चुनौतीपूर्ण समय में मैंने आप सभी के लिए एक प्यारा सा ब्लॉग बनाया है जिसमें अभी के परिवेश का चित्रण है - कैसे जीवन पटरी पर फिर से वापस आ रही है और मुझे जाते समय क्या- क्या देखने को मिला ?? 
-तीन दिनों की  यात्रा को मैंने एक छोटे से ब्लॉग में रखने की कोशिश की है !!
-घर से लेकर एग्जामिनेशन हॉल और फिर एग्जामिनेशन हॉल से घर तक की यात्रा ।
-आज भी बहुत सारी परेशानियां जो पहले से कई गुना बढ़ गई है देखने को मिलती है लोगों का जीवन पहले से कितना दुभर हो गया है और दूसरी महंगाई की मार जो यह लॉकडाउन के बाद बढ़ रही है इन सब का मुकाबला एक आम आदमी कैसे करेगा वो सब का आभास हुआ !!
- रास्ते में मुझे  देखने को मिला कि बहुत दूर-दूर तक पानी भरे हुए हैं खेतों में जिसमें कभी धान के पौधे लहलहा रहे थे आज वहां सिर्फ पानी ही पानी  दिखाई देते हैं इस साल एक मुट्ठी भी किसी के घर में अन्न नहीं आएगा न जाने कैसे लोग अपने जीवन को जिएंगे!!

           दूसरी ओर जब मैं एग्जामिनेशन सेंटर पर पहुंचा तो सोशल डिस्टेंसिंग का पुरा ख्याल रखा गया था  साथ- ही-साथ  वहां पर पुराने मास्क को भी निकाल देना पड़ा और सेंटर एक नया मास्क  प्रोवाइड कराया, यह सभी बच्चों के लिए था और सबको अपना 50ml का सैनिटाइजर पैक एवं अपना पानी के बोतल  के साथ  एक ट्रांसपेरेंट बॉल पेन  ,एडमिट कार्ड और एक आईडी प्रूफ लेकर एंट्री करना था इसके अलावा दूसरा कुछ नहीं , एग्जाम बहुत अच्छे से पुरा हुआ फिर मुझे अपनी यात्रा शुरू करनी थी घर की ओर ,अभी शाम के 6:00 बज चुके थे तो मुझे मोतिहारी रहना पड़ा और फिर  सुबह  घर वापसी की यात्रा शुरू हुई , मै सकुशल अपने घर लौटा !!!

जो जीवन ना बन सका ! || That Could Not Be Life ! || PoemNagari || Hindi Kavita

कविता का शीर्षक - जो जीवन ना बन सका ! Title Of Poem - That Could Not Be Life ! खोखले शब्द  जो जीवन ना बन सके बस छाया या  उस जैसा कुछ बनके  ख...